Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 446
________________ चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१ ) ३९३ 'सुट्टण् अनादरे,' षोपदेश धातु न होने से अद्यतनी में ङपरक 'णि' होने पर षत्व नहीं होगा और 'असुसुट्टत्' रूप होगा। इस प्रकार ही 'सन्' होने पर 'सुसुट्टयिषति' रूप होगा । जबकि षोपदेश धातु के 'असुषुट्टत्, सुषुट्टयिषति' इत्यादि रूप होते हैं । 'सुट्टयति' इत्यादि रूप दोनों प्रकार के धातु से होते हैं । ॥ १०५ ॥ ' शटि शलिण् श्लाघायाम्' । 'शाटयते' । अच् होने पर 'शाट: ' और 'णिवेत्त्यास ' - ५/३/१११ से 'अन' प्रत्यय होने पर 'शाटना' शब्द होगा । ॥ १०६ ॥ 'शालिण् ' का 'शालयते' रूप होता है ॥ १०७॥ ठ अन्तवाले दो धातु हैं । 'रुठि प्रतीघाते', यह धातु द्युतादि है। 'रोठते, रुरुठे' इत्यादि रूप हैं । अद्यतन में 'द्युद्भ्यः' ३/३/४४ से विकल्प से आत्मनेपद होगा और बाद में 'शेषात्' - ३ / ३/ १०० से परस्मैपद भी होगा, अतः परस्मैपद में 'लृदिद्युतादि' - ३/४ / ६४ से 'अङ्' होने पर 'अरुठत्' होगा। जबकि आत्मनेपद में 'अङ्-' न होकर [ सिच् होगा ] 'अरोठिष्ट' रूप होगा । ॥ १०८॥ स्वो. न्या. -: 'अट्टि हिंसातिक्रमयो:' धातु जिसके उपान्त्य में 'द्' है, उसी धातु को 'तू' उपान्त्य और टकारान्त स्वरूप कुछेक मानते हैं । 'मिदुण् स्नेहने' धातु को ही कुछेक टकारान्त मानते हैं । 'षुट्टण् अल्पीभावे' धातु को ही कुछ लोग 'अनादर' अर्थ में अषोपदशे मानते हैं । 'शठिण् श्लाघायाम्' धातु को ही नन्दी वैयाकरण 'शट्' के रूप में मानते हैं, जबकि कौशिक नामक वैयाकरण 'शल्' धातु के रूप में मानते हैं । द्युतादि गण के 'रुटि' प्रतीघाते धातु को ही अन्य वैयाकरण ठकारान्त मानते हैं । 'वुठुण् हिंसायाम्', यह धातु 'उदित्' होने से 'न' का आगम होने पर 'वुण्ठयति' रूप होता है | ॥१०९॥ न्या. सि. श्रीलावण्यसूरिजी 'वुठुण् हिंसायाम्' के स्थान पर 'चुठुण् हिंसायाम्' पाठ देते हैं । अन्तवाले दश धातु हैं । 'चुड्डु अल्पीभावे', 'उदित्' है, अतः 'न' का आगम होकर 'चुण्डयति, चुचुण्ड' इत्यादि रूप होते हैं । 'अच्' होने पर 'चुण्डः ' शब्द होता है | ॥ ११०॥ ‘पिड संघातशब्दयोः' । 'अच्' होने पर 'पेडा' शब्द वस्त्रादिभाजनविशेष अर्थ में होता है । ॥१११॥ 'कड्ड कार्कश्ये' । 'क्विप्' होने पर 'पदस्य' २/१/८९ से संयोगान्त का लोप होने पर 'विरामे वा' १/३/५१ से ‘ड्' का 'ट्' विकल्प से होकर 'कट्, कड्' रूप होंगे। जबकि 'कद्ड्' धातु के 'कद्, कत्' रूप होते हैं और 'कड्डति' इत्यादि रूप दोनों धातु के समान ही होते हैं । ॥ ११२ ॥ 'अड्ड अभियोगे', 'क्विप्' होने पर पूर्व की तरह 'अड्, अट्' शब्द होते हैं । 'सन्' प्रत्यय होने पर, उसके आदि में 'इट्' होगा, बाद में 'ड्डि' का द्वित्व होने पर 'अडिड्डिषति' रूप होगा । जबकि 'अद्ड्' धातु से 'क्विप्' होने पर 'अद्, अत्' रूप होंगे और 'सन्' होने पर 'न बदनं' - ४ / १/५ से 'द' के द्वित्व का निषेध होने से 'डि' का ही द्वित्व होगा और ' अड्डिडिषति' रूप होगा । 'अड्डति' इत्यादि रूप दोनों प्रकार के धातु से समान ही होते हैं । ॥११३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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