Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 444
________________ चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१) ३९१ से भी होते हैं । ॥१०॥ स्वो. न्या.-: 'खवश्' [हेठश्वत्] धातु को ही यहाँ चकारान्त माना है और 'हेठश्' धातु 'भूतप्रादुर्भाव' अर्थ में होने से, यह धातु भी उसी अर्थ में है। 'गुर्चण्' धातु को भी कुछेक अतिरिक्त मानते हैं। द्रमिल नामक वैयाकरण के मत से 'मिच्छत् उत्क्ले शे' धातु के 'म' का 'प' करने से 'पिच्छत्' धातु होता है। 'धातुपारायण' में 'उत्क्लेश' का अर्थ बाधा/पीडा दिया है। __ 'तजु पिजुण हिंसाबलदाननिकेतनेषु' धातुओं की तरह 'लुजु' धातु है, ऐसा कुछेक कहते हैं । 'धृज गतौ' धातु को ही कुछेक 'ध्रिज' ऐसा उपान्त्य रिवाला मानते हैं । कुछेक ऐसा कहते हैं कि 'उद्रिक्तः' इत्यादि शब्दों की सिद्धि के लिए 'ऋजि गतिस्थानाज!र्जनेषु' धातु को 'रिजि' स्वरूप व्यंजनादि किया है। जबकि आचार्यश्री ने तो 'रिचंपी विरेचने' धातु से ही 'उद्रिक्तः' इत्यादि शब्दों की सिद्धि की है । 'ओलजैङ् व्रीडे' धातु को ही चंद्र नामक वैयाकरण नकारादि मानते हैं । कौशिक नामक वैयाकरण 'पृचैङ् सम्पर्चने' धातु को ही 'मृजैकि' स्वरूप में मानते हैं । वृचैप् वरणे' धातु को ही कोईक जकारान्त मानते हैं और उसका 'वर्जन' अर्थ करते हैं । 'मर्जण् शब्दे, मर्जयति' । 'क्त' प्रत्यय होने पर 'मार्जिता रसाला' (श्रीखंड) ॥११॥ ट अन्तवाले तेरह धातु हैं । 'शौट गर्वे, शौटति' । परोक्षा में 'शुशौट' । ऋदित् होने से [ प्रेरक अद्यतनी में ] ङ परक 'णि' होने पर 'उपान्त्यस्या'-४/२/३५ से हूस्व नहीं होगा, अत: 'अशुशौटत्' रूप होगा ॥९२ 'यौट सम्बन्धे', सम्बन्ध अर्थात् श्लेषः । 'यौटति, युयौट' । 'ऋदित्' होने से प्रेरक अद्यतनी में 'अयुयौटत्' रूप होगा । 'णक' प्रत्यय होने पर 'यौटकं युग्मम् यौटितः' । ॥१३॥ 'मट, प्रेट्र, म्लेट, लौट उन्मादे' । 'मेटति, प्रेटति, म्लेटति, लौटति' रूप होते हैं। ये सब धातु 'ऋदित्' होने से प्रेरक अद्यतनी में 'अमिमेटत्' ॥९४॥ ‘अमिनेटत्' ॥१५॥ 'अमिम्लेटत्' ॥१६॥ 'अलुलौटत्' ॥१७॥ रूप होते हैं। 'स्फटु विशरणे' यह धातु उदित् होने से 'न' का आगम होने पर 'स्फण्टति वस्त्रम्' । कर्मणि का कित् प्रत्यय होने पर 'न' का लोप नहीं होगा, अत: ‘स्फण्ट्यते' । परोक्षा में 'पस्फण्ट' प्रेरक में 'णिग्' या स्वार्थ में 'णिच्' होने पर 'स्फण्टयति' । ॥९८॥ 'मुटु प्रमर्दने', धातु 'उदित्' होने से 'न' का आगम होने पर 'मुण्टति' रूप होता है । 'अच्' होने पर 'मुण्टः' शब्द होता है । उदा. "ते हुन्ति कुण्टमुण्टा" २ ॥१९॥ १. अभिधान चिन्तामणि-श्लोक नं. ४०३ । २. 'हुन्ति' शब्द से लगता है कि यही पंक्ति संभवतः प्राकृत काव्य की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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