Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 443
________________ ३९० न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) न्या. सि.-१. यहाँ 'न्यायसंग्रह' की मुद्रित प्रति में 'टुयाचूग्' पाठ दिया है किन्तु वह उचित नहीं है। श्रीलावण्यसूरिजी ने 'डुयाचग' पाठ दिया है और इस न्याय के न्यास में भी 'ड्याचग' पाठ दिया है, 'टुयाचूग्' से भिन्न होने से सही है। 'चर्चत् परिभाषणे, चर्चति' । 'नाम्नि पुंसि च' ५/३/१२१ से 'णक' प्रत्यय होकर [ 'आप' होने पर] 'चर्चिका' शब्द होता है । 'शतृ' प्रत्यय होने पर 'चर्चती चर्चन्ती स्त्री कुले वा' । यहाँ 'अवर्णादश्नोऽन्तो वाऽतुरीङयोः' २/१/११५ से विकल्प से 'अत्' का 'अन्त्' आदेश होता है। ॥८१॥ स्वो. न्या.-: 'झर्चत् परिभाषणे' धातु के स्थान पर कुछेक 'चर्चत्' पाठ करते हैं। _ 'खचश् भूतप्रादुर्भावे' । 'भूतप्रादुर्भाव' अर्थात् अतिक्रान्त की पुन: उत्पत्ति । तवर्गस्य'-१/ ३/६० से 'श्ना' प्रत्यय के 'न' का 'अ' होने पर 'खच्याति' रूप होता है । पंचमी (आज्ञार्थ) युष्मदर्थक एकवचन का 'हि' प्रत्यय होने पर 'श्ना' सहित 'हि' का 'आन' आदेश होकर 'खचान' रूप होता है, [सेट होने से ] 'खचिता, खचितुम्' इत्यादि शब्द होते हैं । ॥ ८२॥ 'गुर्चण निकेतने' । 'भ्वादेर्नामिनो'-२/१/६३ से 'उ' दीर्घ होकर गूर्चयति' होता है। ॥ ८३॥ छ अन्तवाला 'पिच्छत् बाधने' धातु है । 'पिच्छति, पिपिच्छ, पिच्छिता, पिच्छितुम्' इत्यादि प्रयोग होते हैं । 'शतृ' प्रत्यय होने पर 'पिच्छन्ती, पिच्छती स्त्री कुले वा' होता है । 'अच्' प्रत्यय होने पर 'पिच्छा आचामः' शब्द होता है । ॥८४॥ ज अन्तवाले सात धातु हैं । 'लुजु हिंसाबलदाननिकेतनेषु' । यह धातु 'उदित्' होने से लुञ्जति' रूप होता है । 'क्य' होने पर 'न' का लोप न होकर 'लुज्यते' रूप होता है । ॥८५॥ ___थ्रिज गतौ, धेजति'। 'यङ्' होने पर 'देध्रिज्यते' । 'यङ् लोप' होने पर 'देध्रिजीति, देऽक्ति' रूप होता है । 'धृज' धातु के 'धर्जति, दरीधृज्यते' इत्यादि रूप होते हैं । ॥८६॥ 'रिजि गतिस्थानार्जनोर्जनेषु' । 'ऊर्जनं' अर्थात् प्राणनम् । 'इट्' आगम होने से वह 'इट्' अनित्य है, अतः उसके अभाव में 'उद्रिक्तः' शब्द होता है । ॥८७॥ ___ 'ओनजैङ् व्रीडे, नजते' । 'ओदित्' होने से 'क्त' के 'त' का 'न' होगा और ऐदित् होने से 'डीयश्व्यैदितः-४/४/६१ से 'क्तक्तवतु' के आदि में 'इट' का निषेध होने से 'नग्नः' । स्वार्थ में 'क' प्रत्यय होकर स्त्रीलिङ्ग में 'आप' प्रत्यय होने पर 'नग्निकाऽरजाः स्त्री' । 'प्रानजिष्ट' यह धातु णोपदेश नहीं है, अतः ‘अदुरुपसर्गान्त'-२/३/७७ से 'ण' नहीं होगा । ॥४८॥ ___ 'मृजैकि संपर्चने, मृक्ते' । यह धातु 'ऐदित्' होने से 'डीयश्व्यैदितः'-४/४/६१ से 'क्त, क्तवतु' के आदि में 'इट्' का निषेध होने पर 'मृक्तः, मृक्तवान्' शब्द होते हैं ॥८९॥ वृजैप वर्जने' । 'रुधां स्वराच्छ्नो नलुक् च' ३/४/८२ मे 'श्र ' प्रत्यय होने पर 'अन्ति' (वर्तमाना, अन्यदर्थक बहुवचन ) प्रत्यय होकर वृञ्जन्ति' । परोक्षा में 'ववर्ज' रूप होगा। 'घञ्' प्रत्यय होने पर 'ज' का 'ग' होकर 'वर्गः' शब्द होता है । 'वृणक्ति' इत्यादि रूप तो, 'वृचैप् छरणे' धातु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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