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________________ ३९६ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण निषेध होने पर, 'नां घुड्वर्गे'- १/३/३९ से 'ण' के अपवाद में 'न' का 'न' ही रहेगा और ' घृन्तिः ' शब्द होगा । और यह धातु 'ऊदित्' होने से 'क्त्वा' प्रत्यय के आदि में विकल्प से 'इट्' होगा और 'सेट् क्त्वा' प्रत्यय के 'कित्त्व' का 'क्वा' ४ / ३ / २९ सूत्र से निषेध होने पर 'घर्णित्वा' प्रयोग होगा । जब 'इट्' नहीं होगा तब 'यमिरमिनमि' - ४ / २ / ५५ से अंत्य व्यंजन का लोप होने पर 'घृत्वा' शब्द होगा । स्वो. न्या. -: 'अड्ट्' धातु अतिरिक्त / ज्यादा है । 'ओलडुण्' धातु के 'ओ' कार को कुछेक वैयाकरण धातु के अंश के स्वरूप में नहीं मानते । चांद्र परम्परा में 'ओलुडुण्' की तरह 'लदुण्' धातु भी है । 'त्रुटि छेदने' धातु को अन्य कुछेक वैयाकरण डकारान्त मानते हैं। 'फण' धातु सिद्धहेम में घटयदि गण में है, जबकि अन्य वैयाकरण की मान्यतानुसार वह अघटादि है । 'अनिच्' प्राणने धातु को ही अन्य वैयाकरण णकारान्त मानते हैं । यह धातु 'वेट्' है, अत एव 'इट्' नहीं होगा, अत: 'घृत:, घृतवान्' तथा 'क्ति' प्रत्यय होने पर यमिरमिनमि' - ४ / २ / ५५ से अंत्य 'ण' का लोप होकर 'घृति:' शब्द होता है । 'तिव्' इत्यादि प्रत्यय होने पर 'घर्णोति, घर्णुते' इत्यादि रूप नकारान्त और णकारान्त ( दोनों प्रकार के ) धातु से समान ही होते हैं । ॥ १२४॥ 'घणूयी' धातु के 'घणुते, घणोति, जघाण, जघणे' रूप होते हैं। यह धातु 'ऊदित्' होने से 'क्वा' प्रत्यय के आदि में विकल्प से 'इट्' होगा । जब 'इट्' होगा तब 'घणित्वा' होगा और 'इट्' नहीं होगा तब यमि रमि नमि- ' ४/२/५५ से 'ण' का लोप होने पर 'घत्वा' और 'वेट्' होने से ही 'क्त' और ' क्तवतु' के आदि में 'इट्' न होने पर 'घतः, घतवान्,' रूप होंगे | ॥ १२५ ॥ अन्तवाले छः धातु हैं । 'इतु बन्धने,' 'उदित्' होने से 'न' का आगम होने पर ' इन्तति' रूप होगा। जबकि कर्मणि प्रयोग में 'क्य' प्रत्यय होने पर 'न-लोप' का अभाव होने से 'इन्त्यते ' रूप होता है । 'गुरुनाम्यादे' - ३ / ४/४८ सूत्र से परोक्षा में 'आम्' होने पर ' इन्ताञ्चकार' रूप होता है । ॥ १२६ ॥ 'ज्युति भासने' । उणादि का 'इस्' प्रत्यय होने पर 'ज्योति: ' शब्द होता है | ॥ १२७ ॥ 'कितक् ज्ञाने' यह धातु ह्वादि ( जुहोत्यादि) है, अतः 'हवः शिति' ४/१/१२ से द्वित्व होकर 'चिकेत्ति' रूप होता है। 'न न चिकेत्ति' अर्थ में 'नखादित्व' से निपातन होने पर 'नाचिकेत: ' शब्द किसी मनुष्य के नाम के स्वरूप में सिद्ध होता है। जबकि 'केतति, केतनं' इत्यादि भ्वादि गण के 'कित निवासे' धातु से सिद्ध होते हैं । ॥ १२८ ॥ स्वो. न्या. -: तनादि गण में जो 'घृणूयी दीप्तौ' धातु है, वह वस्तुतः नकारान्त ही है किन्तु 'रषृवर्णान्नो' - २/३/६३ से 'न' का 'ण' करके णकारान्त पाठ किया है, उसे कोई-कोई कुछेक वैयाकरण स्वाभाविक णकारान्त मानते हैं । 'घृन्ति' रूप की सिद्धि में 'ण' के अपवाद में 'म्नां धुड्वर्गे' -१ / ३/३९ से 'न' का 'न' ही रहता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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