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________________ चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१) ३९५ इसी शंका का प्रत्युत्तर देते हुए श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि आप की बात सत्य है कि धुतादि गण के 'जिक्ष्विड्' धातु को उभयपदी करने से एक ही पाठ से 'प्रक्ष्वेडन' को छोड़कर सभी प्रयोगों की सिद्धि होती है किन्तु 'प्रक्ष्वेडन' शब्द की सिद्धि के लिए 'क्ष्विड्' धातु को 'ङित्' करना आवश्यक है क्योंकि बिना 'ङित्त्व', 'अन' प्रत्यय की प्राप्ति नहीं होती है, अत: 'ङित्' पाठ करने के बाद 'क्ष्वेडति' इत्यादि की सिद्धि के लिए अङित् 'क्ष्विड' धातु का पाठ भी पाया जाता है, अतः यहाँ न्याय में दोनों प्रकार के धातुओं का भिन्न भिन्न पाठ किया है। 'ओलडु, लदुण उत्क्षेपे,' यह धातु ‘उदित्' होने से 'न' का आगम होने पर ‘लण्डयति' रूप होता है । 'क्त' और 'क्तवतु' होने पर 'सेट्क्तयोः' ४/३/८४ से 'णि' का लोप होगा और यह धातु 'ओदित्' होने से 'इट्' का व्यवधान होने पर भी 'सूयत्याद्योदितः' ४/२/७० से 'क्त' और 'क्तवतु' के 'त' का 'न' होकर 'लण्डिनः, लण्डिनवान्' शब्द होते हैं । 'णिवेत्त्यास'-५/३/१११ से 'अन' प्रत्यय होने पर लण्डना' शब्द होता है। 'णिच्' अनित्य होने से 'णिच्' के अभाव में 'लण्डति' रूप होता है । णिच्' और 'इट्' दोनों अनित्य होने से उन दोनों के अभाव में धातु 'ओदित्' होने से 'क्त' और 'क्तवतु' के 'त' का 'न' करने पर और 'तवर्गस्य'-१/३/६० से 'न' का 'ण' होकर लण्ड्णः लण्इणवान्' शब्द होते हैं। यदि 'ओ' को अनुबन्ध न माना जाय किन्तु धातु का एक अंश ही माना जाय तो 'ओलण्डयति, ओलण्डति, ओलण्डितः, ओलण्डितवान्, ओलण्डना' इत्यादि शब्द होते हैं। ॥११९॥ 'लदुण्' धातु 'उदित्' होने से 'अवलन्दयति' रूप होता है। ॥१२०॥ 'त्रुडिण् छेदने' 'उत्रोडयते तृणम्' ॥१२१॥ ण अन्तवाले चार धातु हैं। 'फण गतौ', यह धातु 'घटादि' न होने से 'णि' होने पर फाणयति गां' होता है । गति अर्थ में होने पर भी अघटादि होने से 'घटादेः'-४/२/२४ से ह्रस्व नहीं होता है। 'धातु अनेक अर्थवाले होते हैं' न्याय से निःस्नेहन अर्थ में भी यह धातु है । उदा. 'फाणयति घटम्' अर्थात् [ वह घडा को स्नेह (स्निग्धता) रहित करता है।] फाण्यते द्रवत्वाद् इति फाणितं खण्डश्चोतः [मसका (दही) के जल स्वरूप अंश को सुखा दिया ।] घटादि 'फण' धातु के 'घटादेईस्वः'-४/२/२४ से हुस्व होने पर 'फणयति, फण्यते, फणितं' इत्यादि रूप होते हैं । जबकि 'फणति' इत्यादि दोनों प्रकार के 'फण्' धातु से सिद्ध होते हैं । ॥१२२॥ 'अणिच् प्राणने', प्राणनं अर्थात् जीवनम् । 'अण्यते, आणे' इत्यादि रूप होते हैं । ॥१२३॥ 'घृणू घणूयी दीप्तौ', 'तिकृतौ नाम्नि' ५/१/७१ से 'तिक्' प्रत्यय होगा, बाद में अहन्पञ्चमस्य क्वि क्ङिति'-४/१/१०७ से स्वर दीर्घ होने की प्राप्ति है किन्तु 'न तिकि दीर्घश्च' ४/२/५९ से निषेध होने से दीर्घ नहीं होगा और इसी सूत्र से ही 'यमि रमि नमि गमि हनि मनि वनति तनादेधुटि क्ङिति' ४/२/५५ से प्राप्त 'ण' का लोप भी नहीं होगा और 'तवर्गस्य'-१/३/६० से 'त' का 'ट' होने पर 'घृण्टिः ' शब्द होता है। न अन्तवाले 'घृन्' धातु से 'तिक्' प्रत्यय होने पर न तिकि'-४/२/५९ से दीर्घ और 'न लुक्' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001446
Book TitleNyayasangrah
Original Sutra AuthorHemhans Gani
AuthorNandighoshvijay
PublisherKalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
Publication Year1997
Total Pages470
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, & Nyay
File Size11 MB
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