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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १०२) उसकी प्रक्रिया श्रीलावण्यसूरिजी इस प्रकार बताते हैं ।
इस न्याय के बारे में विचार करने पर लगता है कि इस न्याय से गत्यर्थक धातुओं का ज्ञानार्थत्व, गत्यर्थत्व के अनुसार ही होता है या प्रथम गत्यर्थ की प्रतीति होती है, बाद में ज्ञानार्थ का ज्ञान होता है । और गत्यर्थक धातु का ज्ञानार्थत्व, उपसर्ग के कारण या प्रेरणार्थक प्रत्यय के कारण ही होता है तथा उपसर्ग का सामर्थ्य सर्व धातुओं के लिए अचिन्त्य है, ऐसा प्रत्येक वैयाकरण ने स्वीकार किया है। उदा० "उपसर्गेण धात्वर्थो बलादन्यत्र नीयते । प्रहाराहार-संहार-विहार -परिहारवत्॥" अत: 'गच्छति' में गति अर्थ का ही बोध होता है और उपसर्ग के कारण 'अवगच्छति' का अर्थ 'उसको बोध होता है' ऐसा होता है । अतः 'अवगच्छति' इत्यादि प्रयोग इस न्याय का विषय नहीं है । 'गमयति शब्दोऽर्थम्' वाक्य में प्रेरणार्थक प्रत्यय के कारण प्रतीत होता ज्ञानार्थत्व का. बोध, गत्यर्थपूर्वक ही होता है और इस वाक्य का अर्थ इस प्रकार होता है । 'अर्थो ज्ञानविषयतां गच्छति, तं शब्दः प्रेरयति ।' (अर्थ ज्ञानस्वरूप विषयता में जाता है और उसी अर्थ को शब्द प्रेरणा करता है।) अर्थात् शब्द अर्थ का ज्ञापन कराता है । यहाँ 'ज्ञानविषयता' स्वरूप कर्म अतिप्रसिद्ध होने से, उसका प्रयोग नहीं होता है।
पूर्व न्याय की तरह यह न्याय भी ज्ञापनलभ्य नहीं है किन्तु शब्दशक्ति स्वभावलब्ध ही है।
इस प्रकार उपसर्ग के कारण और प्रेरणार्थक प्रत्यय के कारण जहाँ जहाँ 'इण्' धातु का ज्ञान अर्थ होता हो वहाँ वहाँ 'इण्' का 'गमु' आदेश न हो, इसके लिए 'णावज्ञाने गमुः' ४/४/ २४ में 'अज्ञाने' शब्द रखा है। अतः वह सार्थक ही है ।
सब गत्यर्थक धातु बोधार्थक नहीं होने के कारण 'गतिबोधाहारार्थ-२/२/५ सूत्र में 'गति' के साथ 'बोध' का भी ग्रहण किया है वह युक्तिसंगत ही है। यदि केवल 'गति' शब्द का ही ग्रहण किया होता तो 'बोधयति शिष्यं धर्मम्' में 'शिष्य' को कर्मत्व की प्राप्ति नहीं होती क्योंकि 'बुध्' धातु का अर्थ 'गति' नहीं होता है । यदि केवल बोधार्थ का ही ग्रहण किया जाय तो 'गमयति चैत्रं ग्रामम्' में बोधार्थत्व का अभाव होने से वहाँ भी 'चैत्र' को कर्मत्व की प्राप्ति न होती । अतः ‘बोध' या 'गति' दो में से किसी की भी व्यर्थता प्रतिपादन करना असंभव है । अतः इसके द्वारा इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापन करना संभव ही नहीं है ।
गत्यर्थक धातुओं के ज्ञानार्थत्व का अन्य प्रकार से ज्ञापन करना संभव होने पर भी गत्यर्थक और ज्ञानार्थक का भिन्न भिन्न धातु के स्वरूप में ग्रहण करना परम आवश्यक होने से यह न्याय ज्ञापकसिद्ध नहीं है अथवा शब्दशक्ति का अनुवादक ही यह न्याय है, ऐसा मानना उचित प्रतीत होता है । अतः अन्य किसी व्याकरण परंपरा में इस सिद्धांत का न्याय के स्वरूप में स्वीकार नहीं किया है।
॥१०२॥ नाम्नां व्युत्पत्तिरव्यवस्थिता ॥४५॥ 'नाम' की व्युत्पत्ति ( प्रकृति और प्रत्यय का निश्चय ) भिन्न भिन्न प्रकार से होती है।
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