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चतुर्थ वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. १४१ )
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'खोदण् क्षेपे, खोदयति' । 'ङ' प्रत्यय होने पर ह्रस्व के अभाव में अद्यतनी में 'अचखोदत्' रूप होता है ॥१२॥
'स्तन, ध्वन, स्वन, स्यम शब्दे' । ये धातु अनेकस्वरयुक्त होने से 'भृश' और आभीक्ष्ण्य अर्थ में भी इन धातुओं से 'यङ्' नहीं होता है । परोक्षा में 'आम्' प्रत्यय होने पर 'स्तनाञ्चकार, ध्वनाञ्चकार, स्वनाञ्चकार, स्यमाञ्चकार' इत्यादि रूप होते हैं । शीलादि अर्थ में 'निन्दहिंस'-५/२/६८ सूत्र से 'णक' प्रत्यय होकर 'स्वनक, स्यमकः' इत्यादि शब्द होते हैं। जबकि 'स्तनकः, ध्वनक: ' शब्द और 'स्तनयति, अतस्तनत्, ध्वनयति, अदध्वनद्' इत्यादि रूप, इन्हीं दो धातुओं की तरह चुरादि अकारान्त 'स्तनण् गर्जे, ध्वनण् शब्दे' धातु से भी होते हैं । 'स्वन' धातु अवतंसन- बाँधना, गूँथना अर्थ में ही घटादित्व प्राप्त करता है, अतः अकारान्त धातुओं में उसका पाठ करने से, अन्य अर्थवाले 'स्वन' धातु से भी 'स्वनयति' रूप सिद्ध होता है और अकारान्त होने से, समानलोपित्व के कारण सन्वद्भाव नहीं होता है, अतः अद्यतनी में 'असस्वनत्' रूप होता है और 'स्यम्' धातु का 'असस्यमत्' रूप होता है । जबकि अनकारान्त ये दो धातु 'समानलोपि' न होने से सन्वद्भाव होकर 'असिस्वनत्' और 'असिस्यमत्' रूप होते हैं । 'स्यमयति' इत्यादि में तो अकारान्त न होने पर भी उसके स्वर का अमोऽकम्यमिचमः ४ / २ / २६ से ह्रस्व होता ही है । ।। १३-१४-१५-१६ ॥
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'षम, ष्टम वैक्लव्ये' । ये दो धातु षोपदेश हैं । इसी ग्रन्थ अर्थात् सिद्धहेम में 'षम १, ष्टम २, षेकृ ३, वर्ति४ षाधि ५, , षन्ति ६, षुन्भि ७, षुरि ८, पिलि ९, षान्त्वि १०, ष्णुसि ११, ष्णासि १२, ष्टृहि १३, ष्टृहि १४, ष्टृक्षि १५, ये पन्द्रह धातु सकारादि होने पर भी धातुपाठ में उनका घोपदेश निर्देश किया है । और 'षः सोऽष्ठ्यैष्ठव - २/३/९८ से उनके 'ष' का 'स' होता है । इस प्रकार यही 'स' कृत माना जाता है, अतः 'नाम्यन्तस्था' - २/३/१५ से 'ष' होता है और यही षोपदेश का फल है | उदा. सन्परक 'णि' प्रत्यय पर में होने पर 'सिषमयिषति' और 'तिष्टमयिषति' इत्यादि रूप में 'स' का 'ष' होता है । ङ परक 'णि' पर में होने पर, अकारान्त होने से, सन्वद्भाव के अभाव में 'अससमत्, अतस्तमत्' रूप होते हैं । ये धातु अनेक स्वरयुक्त होने से 'यङ्' नहीं होता है । परोक्षा में 'आम्' होने पर 'समाञ्चकार, स्तमाञ्चकार' इत्यादि रूप होते हैं । शीलादि अर्थ में 'निन्दहिंस'-५/२/६८ सूत्र से 'णक' प्रत्यय होने पर 'समकः, स्तमकः ' शब्द होते हैं | ॥१७- १८॥
स्वो.न्या. :-‘श्रथण् दौर्बल्ये' धातु में ही ऋफिडादित्व से लत्व को नहीं माननेवाले, कुछेक श्लथण् स्वरूप पृथक् धातु ही मानते हैं । 'शारण् दौर्बल्ये' धातु का 'शरण्' स्वरूप पाठ नन्दी अर्थात् देवनन्दी करते हैं। 'छदण्' धातु कुछेक की मान्यतानुसार अकारान्त है । 'लाभण् प्रेरणे' धातु के स्थान पर 'लभण्’ पाठ 'सभ्याः' करते हैं । 'श्रपण्' धातु को कुछेक अतिरिक्त धातु मानते हैं।
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'खोटण् क्षेपे' धातु को ही अन्य वैयाकरण दकारान्त मानते हैं ।
न्या. सि. 'खोदण्' के स्थान पर श्रीलावण्यसूरिजी ने 'खादण्' पाठ दिया है और उदाहरण भी उसके दिये हैं । जबकि 'न्यायसंग्रह' की नयी मुद्रित प्रति में 'खोदण्' है और पुरानी मुद्रित प्रति में 'खादण्' पाठ है, जो अशुद्ध है।
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