Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 432
________________ चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१ ) ३७९ अब जो धातु हैमधातुपाठ में बताये हैं किन्तु अन्य वैयाकरणों ने उन्हीं धातुओं को अन्य रूप से/ प्रकार से बताये हो वे धातुओं और हैमधातुपाठ में न बताये हों और अन्य वैयाकरणोनें बताये हों ऐसे अतिरिक्त धातुओं को यहाँ परपठित धातु कहें हैं। उसमें शुरू के तीस धातु अकारान्त हैं । 'खेडण् भक्षणे, खेडयति' । अद्यतनी में 'ङ' प्रत्यय होने पर धातु अकारान्त होने से 'उपान्त्यस्या'-४/२/३५ से ह्रस्व नहीं होगा, अतः 'अचिखेडत्' रूप होगा ॥ १ ॥ ‘पणण् विक्रये' । ण्यन्त होने से 'युवर्णवृदृवशरणगमृद्ग्रहः' ५/३/२८ से 'अल्' प्रत्यय होने पर, धातु अकारान्त होने से 'णि' पर में होने पर वृद्धि के अभाव में 'विपण:' शब्द विक्रय अर्थ में होता है । व्यवहार और स्तुति अर्थवाले 'पणि' धातु से 'अल्' नहीं होगा किन्तु 'घञ्' होगा और 'विपाण' शब्द होगा ॥२॥ 'वित्तण् दाने । वित्तयति, वित्तित: वित्तयित्वा' । अकारान्त विधान के सामर्थ्य से 'अ' लुक् के अभाव में, उपान्त्य नहीं है, ऐसे अन्त्य 'अ' की ' अतो ञ्णिति" सूत्र से वृद्धि होगी और 'पु' का आगम होने पर 'वित्तापयति' रूप होगा ॥३॥ 'कर्त्त कर्त्र कत्थन् शैथिल्ये' । 'कर्त्तापयति, कर्त्तयति' रूप होते हैं, जबकि 'अचकर्त्तत् इत्यादि रूप 'कृतैत्, कृतैप् वेष्टने, ' इन दोनों धातुओं से भी स्वार्थ में 'णि' प्रत्यय करने पर होते हैं 11811 'कर्त्रण' धातु के 'कर्त्रयति, कर्त्रापयति, कर्त्रितम्' इत्यादि रूप होते हैं ॥ ५ ॥ 'कत्थण्' धातु का 'कत्थापयति' । जबकि 'कत्थयति' रूप ' कत्थि श्लाघायाम्' धातु स्वार्थ में 'णि' प्रत्यय करने पर होता है | ||६ ॥ 'श्लथण् शरण् दौर्बल्ये' 'श्लथयति' । अद्यतनी में 'ङ' प्रत्यय होकर 'अशश्लथत् ' रूप होता है । यह धातु भी अकारान्त होने से वृद्धि और सन्वद्भाव नहीं होता है ॥ ७ ॥ 'शरण-शरप्रति' । यहाँ भी धातु अकारान्त होने से वृद्धि नहीं होती है और 'ङ' प्रत्यय होने पर सन्वद्भाव भी नहीं होता है । अतः 'अशशरत्' रूप होता है | ॥८ ॥ स्वो. न्या. 'पिंशति, पिंश्यते' । यहाँ 'पिंशत् अवयवे' धातु के, 'श' विकरण प्रत्यय होने पर, मुचादि गण में होने से, न का आगम होकर 'पिंशति' इत्यादि रूप होते हैं । किन्तु कर्मणि प्रयोग में क्य प्रत्यय होने पर 'नो व्यञ्जनस्या- ' ४/२/४५ से 'न' का लोप होने पर 'पिश्यते' रूप होता है, जबकि यही पिशु धातु का 'पिंश्यते' रूप होता है क्योंकि वह उदित् होने से 'न' का लोप नहीं होता है, इसी बात को बताने के लिए वृत्ति दो रूप दिये हैं । न्या. सि. -: 'क्रश' धातु के स्थान पर श्रीलावण्यसूरिजी ने 'कुश' धातु का स्वीकार किया है। इसका कारण बताते हुए वे कहते हैं कि 'धातुपारायण' में 'कुश' पाठ दिया है । है । १. यहाँ श्रीलावण्यसूरिजी ने 'अचो ञ्णिति' ( पा.सू.७/२/१११) सूत्र देकर 'वित्तापयति इति केचित् ' कहा २. यहाँ श्रीलावण्यसूरिजी ने 'कर्त्तयति' और 'अचकर्त्तत्' रूपों को 'कृतैत् छेदने' तथा 'कृतैप् वेष्टने' धातु के मानें हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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