Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 430
________________ चतुर्थ वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. १४१ ) वाक्यकरणीय धातु हैं, ऐसा दृढ ज्ञातव्य है । ३७७ विवेक अन्वर्थक ऐसी इस संज्ञा और विशेष सम्प्रदायविद् से अब सौत्र, लौकिक और वाक्यकरणीय धातुओं को छोड़कर, जो अकारान्त धातु धातुपारायण में बताये हैं, उसका कथन करते हैं । १. 'खचण् बन्धने', 'तडित् खचयतीवाशा" ( मानो कि दिशाओं को बिजली बाँध रही है । ) ( वर्षावर्णने, वाल्मीकिः ) "आसने रत्नखचिते " ( रत्न से जडित आसन पर ) | यह धातु अकारान्त होने से' अत: ' ४/३/८२ से 'अ' का लोप होता है, उसका स्थानिवद्भाव होने पर 'अ' उपान्त्य नहीं माना जाता है, अतः उसकी वृद्धि नहीं होती है। अद्यतनी में 'ङ' पर में होने पर 'अचखचत्' यहाँ धातु अकारान्त होने से और 'अत: ' ४/३/८२ से 'अ' का लोप होने से, वह समानलोप हो जाता है अत: पूर्व का सन्वद्भाव और दीर्घ नहीं होता है ॥ १ ॥ 7 'आजण् बलतेजसोः, ओजयति' । 'सन्' प्रत्यय होने पर 'स्वरादे: ' - ४/१/४ से 'जि' का द्वि होकर 'ओजिजयिषति' । 'ङ' प्रत्यय होने पर अद्यतनी में 'औजिजत्' रूप होता है । 'शंका' :- लोप हुए 'अ' का स्थानिवद्भाव होने पर 'ज' का द्वित्व प्राप्त है तो 'जि' का द्वित्व क्यों किया ? 'समाधान' : ' अत: ' ४/३/८२ सूत्र की वृत्ति में बताया है कि 'णि' के विषय में 'अ' का लुक होता है, उसका आश्रय करने पर 'अ' का लुक् णि के विषय में किया गया है, किन्तु णि निमित्तक नहीं किया है, अतः परनिमित्त का अभाव है। जबकि 'स्वरस्य परे प्राग्विधौ' - ७/४/११० सूत्र से परनिमित्तक स्वरादेश का ही स्थानिवद्भाव होता है, अत एव यहाँ 'अ' का स्थानिवद्भाव नहीं होता है और 'जि' का ही द्वित्व होता है । ' मा भवानोजिजत्' यहाँ धातु अकारान्त होने से वह समानलोपि होता है, अतः द्वित्व होने से पहले प्राप्त 'उपान्त्यस्या' - ४ / २ / ३५ से ह्रस्व नहीं होता है । 'अच्' प्रत्यय होने पर 'ओजम्' अर्थात् एक, तीन, पाँच इत्यादि विषम संख्याएँ । उणादि के 'अस्' (उणा - ९५२ ) से 'अस्' प्रत्यय होने पर 'ओज:' शब्द होता है | ॥२॥ 'स्फुटण् प्राकट्ये'। 'स्कुटयति' । लुक् हुए 'अ' का स्थानिवद्भाव होने पर गुण नहीं होता 113 11 'तुच्छण् आच्छादने' | 'तुच्छयति' ॥४॥ 'स्कन्धण् समाहारे' । 'स्कन्धयति' । 'स्कुटं करोति', 'स्फुटयति अर्थम् ।' इस प्रकार 'स्फुट' इत्यादि 'नाम' से णिज् प्रत्यय होकर 'स्फुटयति, तुच्छ्रयति, स्कन्धयति' इत्यादि रूप की सिद्धि हो सकती है तथापि 'स्फुटण्' इत्यादि का अकारान्त धातु में पाठ किया, वह इष्ट अर्थ का प्रत्यय (ज्ञान) होने के बाद बिना 'णिज्' ही प्रयोग करने के लिए है । उदा. 'पांसुर्दिशां मुखमतुच्छयदुत्थितोऽद्रे : ' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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