Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 439
________________ • न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) 'दूट् हिंसायाम्' धातु का 'दूनोति' रूप होता है । जबकि 'टुदुंद् उपतापे' धातु का 'दुनोति' रूप होता है । ।। ५०॥ ३८६ स्वो. न्या. -: 'धुंग्ट्' स्वादि गण में अतिरिक्त कहा है। 'गुंङ् शब्दे' धातु को ही कुछेक दीर्घान्त परस्मैपद में, पुरीषोत्सर्ग अर्थ में कहते हैं । कुटादि गण के 'गुंत्' धातु को ही कुछेक दीर्घान्त व सेट् कहते हैं ! दूट् धातु को कुछेक स्वादि गण में अतिरिक्त मानते हैं I ऋदन्त आठ धातु हैं । 'जूं अभिभवे' । 'यमी जरति कर्माणि' । ( संयमी कर्मों का पराभव करता है ।) अनुस्वार की 'इत्' संज्ञा हुई है, अतः 'जर्ता, जर्तुम्' शब्द होते हैं । शीलादि अर्थ में 'वयः शक्तिशीले ५/२/२४ से 'शान' प्रत्यय होने पर 'जरमाण:' शब्द किसी व्यक्तिविशेष की संज्ञा में होता है । उससे 'तस्यापत्यं वृद्धं' अर्थ में 'गर्गादे: ' - ६/१/४२ से 'यञ्' प्रत्यय करने पर 'जारमाण्यः' शब्द बनता है | ॥ ५१॥ 'घक् क्षरणदीप्त्योः, सृक् गतौ, हक् बलात्कारे' । ये तीनों धातु ह्वादि ( जुहोत्यादि) हैं, अत: 'हवः शिति' ४/१/१२ से द्वित्व होने पर 'जघर्ति' ॥ ५२ ॥ 'ससत्ति' ॥ ५३ ॥ और 'जहति' रूप होते हैं । ॥ ५४॥ 'स्पंद् पालनप्रीत्यो:' । इस धातु में अन्त्य स्वर 'ऋ' से पूर्व ओष्ठ्य व्यंजन आया हुआ है । 'स्पृणोति, पस्पार' इत्यादि रूप होते हैं । अनुस्वार की इत् संज्ञा हुई होने से 'स्पर्त्ता, स्पर्त्तुम्' शब्द होते हैं । ॥५५॥ 'ऋट् कृग्श्, हिंसायाम्' । ' ऋणोति' । 'ऋणूयी गतौ' धातु में स्वर का गुण होने पर 'अणुते, अर्णोति' इत्यादि रूप होते हैं । ॥ ५६ ॥ 'कृग्श्' । यह धातु ल्वादि है, अतः 'ऋल्वादे: ' - ४ / २ / ६८ से 'क्त' इत्यादि के 'त' का 'न' होने पर 'कृणः, कृणवान्, कृणि:' शब्द होते हैं। जबकि 'कृग्श्' धातु के 'कीर्णः, कीर्णवान्, कीर्णि: शब्द होते हैं, किन्तु 'कृग्श् और 'कृग्श्' दोनों धातु के 'कृणाति' इत्यादि रूप ही होते हैं ॥ ५७॥ का 'वृग्श् वरणे' । यह धातु भी ल्वादि है, अतः 'ऋल्वादे: ' ४/२/६८ से 'क्त' इत्यादि के 'त' 'न' करने पर 'वृणः, वृणवान्, वृणि: ' शब्द होते हैं। जबकि 'वृग्श्' धातु के 'ऋ' का 'ओष्ठया दुर् ४/४/११७ से 'उर्' करने पर [ 'भ्वादेर्नामिनो' - २/१/६३ से उ, दीर्घ करने पर ] 'वूर्ण: वर्णवान्, वर्णि: ' शब्द होते हैं । जबकि 'वृणाति' इत्यादि रूप दोनों धातु 'वृग्श' और 'वृग्श्' से होते हैं । ॥५८॥ दीर्घ ऋकारान्त तीन धातु हैं । च् भक्षणगत्योः । 'चीर्णा' शब्द 'क्त' प्रत्यय होने पर बनता है । 'अचारि गवा', यहाँ अद्यतनी कर्मणि प्रयोग है । 'आचीर्णं तपः ' इस धातु के 'क्त' और ' क्तवतु' प्रत्ययान्त का ही प्रयोग पाया जाता है । अन्य प्रत्ययान्त प्रयोग नहीं पाया जाता है | ॥५९॥ स्वो. न्या. -: 'ज्रि अभिभवे' धातु को ही कुछेक 'जूं' स्वरूप ऋकारान्त कहते हैं । 'घृ. सृ, ह' को कुछेक अतिरिक्त मानते हैं। 'स्प्रंट् पालने' धातु 'स्मृट् पालने' धातु में ही 'म' का 'प' करने से होता है, ऐसा किसीका कहना है। 'ऋ' धातु को स्वादि गण में अतिरिक्त कहते हैं और 'कृग्श्' धातु, 'फग्श्' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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