Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 437
________________ ३८४ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) स्वो. न्या. -: 'पल्पूलण् लवनपवनयो:' ( (धातु १९१६) के स्थान पर कुछेक 'वल्पुल' पाठ करते हैं. अन्य 'वल्पूल' पाठ करते हैं तो कुछेक 'पल्पुल' तो अन्य कोईक 'पप्पूल' पाठ करते हैं, कुछेक 'वत्पुल' पाठ करते हैं । 'कुमारण् क्रीडायाम्' धातु को ही कुछेक लकारान्त मानते हैं । 'पषण् अनुपसर्गो' धातु, जो चुरादि गण में अकारान्त हैं, वही धातु यहाँ अन्य के मतानुसार तालव्य शकारान्त और अकारान्त बताया है । 'शशण्' धातु अतिरिक्त धातु है और वह 'सूर्यप्रज्ञप्ति' आगम की टीका में पाया जाता है । 'अंशण् समाघाते' धातु को ही चन्द्र वैयाकरण दन्त्य सकारान्त कहते हैं और धातुपारायण में 'समाघात' का अर्थ 'विभाजन' बताया है, अतः यहाँ सीधे ही 'विभाजन' अर्थ दे दिया है । 'ई, वेवीकि प्रजनकान्त्यसनखादनगतिषु' । 'प्रजन' अर्थात् प्रथमगर्भग्रहण, असन अर्थात् फेंकना (क्षेप) अथवा अशन अर्थात् खाना या तृप्त होना । 'ईते गौ: ' [ गाय प्रथम गर्भग्रहण करती है । ] ||३८|| वैसे 'वेवीते' इत्यादि रूप भी होते हैं । ॥ ३९ ॥ 'क्षींषश् हिंसायाम्', 'क्षीणाति, क्षीतः, क्षीतवान्, क्षीति:' । 'षित्' होने से 'षितोऽङ् ५ / ३ /. १०७ से 'अङ्' प्रत्यय होकर 'क्षिया' शब्द होता है । यह शब्द 'क्षिष‍ हिंसायाम्' धातु से भी सिद्ध हो सकता है | ॥४०॥ 'व्रीश् वरणे, श्रींश् भरणे' । ये दो धातु प्वादि हैं, अत: 'प्वादेर्ह्रस्वः ' ४ / २ / १०५ ह्रस्व होने पर 'व्रिणाति, भ्रिणाति' रूप होते हैं । अप्वादि के रूप में इन दो धातु से 'व्रीणाति, श्रीणाति' रूप भी होते हैं । ॥४१-४२॥ 'ल्पींश् श्लेषणे' । इस धातु में ओष्ठ्य व्यंजन उपान्त्य में आया है, और वह 'प्वादि' तथा 'ल्वादि' दोनों में गिना जाता है । 'प्वादि' मानने पर ह्रस्व होकर 'ल्पिनाति' रूप होता है । 'ल्वादि' मानने पर 'ॠल्वादेरेषां तो नोऽप्र: ' ४ / २ / ६८ से 'क्त, क्तवतु' और 'क्ति' के 'त' का 'न' होने पर 'ल्पीनः ल्पीनवान्, ल्पीनि: ' शब्द बनते हैं । अनुस्वार की इत् संज्ञा हुई होने से 'ल्पेता, ल्पेतुम्' शब्द होते हैं । ॥४३॥ 'ल्वींश् गतौ' । यह धातु प्वादि या ल्वादि नहीं है, अतः ह्रस्व न होने से 'ल्वीनाति' रूप होता है । 'क्त, क्तवतु, क्ति' के 'त' का 'न' नहीं होता है, अतः 'ल्वीतः, ल्वीतवान् ल्वीति: ' शब्द होते हैं । प्वादि और ल्वादि के बीच इस धातुका पाठ किया है, अतः क्वचित् 'ल्वीनः, ल्वीनवान्, ल्वीनि: ' भी होते हैं । ॥ ४४ ॥ 'ज्रीण् वयोहानौ' । यह धातु युजादि है, अतः 'युजादेर्नवा' ३/४/१८ से विकल्प से णिच् होने पर 'ज्राययति, ज्रयति' रूप होते हैं । ज्ण् धातु के 'जारयति, जरति' रूप होते हैं । ॥ ४५ ॥ स्वो. न्या.-: कुछेक 'गहण्' धातु को अतिरिक्त धातु मानते हैं। 'गाक्' धातु और 'माङ्' धातु को भी कुछेक अतिरिक्त धातु मानते हैं, वैसे स्वादि गण में 'जिरिट्', चुरादि में घटादि गण में 'चिन्तं' तथा 'दीघी, ई' और 'वेवी' धातु को भी कुछेक वैयाकरण अतिरिक्त मानते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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