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चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१)
३८३ होगा, बाद में 'अघोषे शिटः' ४/१/४५ से पूर्व के अनुस्वार का लोप होने पर 'व्यसिंसयिषति' और 'व्यासिंसत्' ऐसे अनिष्ट रूप होते । इस धातु के अकारान्तत्व के सामर्थ्य से अंत्य 'अ' का लोप नहीं होगा तब वृद्धि होकर 'पु' का आगम होने पर व्यंसापयति' इत्यादि रूप होते हैं । ॥२९॥
'गहण गहने । गहयति, गहापयति' इत्यादि रूप होते हैं ॥३०॥
दो धातु आकारान्त हैं । १. 'गाक् जन्मस्तुत्योः' । यह धातु ह्वादि अर्थात् जुहोत्यादि है । अतः 'हवः शिति' ४/१/१२ से द्वित्व होने पर 'जगाति' रूप होता है ॥ ३१ ॥
२. 'माङ्च् माने । मायते' । यहाँ दिवादि का 'श्य' प्रत्यय शित् होने से 'ईर्व्यञ्जनेऽयपि' ४/ ३/९७ से ईत्व नहीं होता है क्योंकि इसी सूत्र में 'अशिति' कहा है । 'नेमादा'-२/३/७९ से उपसर्गस्वरूप 'नि' का 'णि' होने पर 'प्रणिमायते' रूप होगा । ॥३२॥ ।
चार धातु इकारात्त है । २. 'किक् ज्ञाने' । यह धातु ह्यादि (जुहोत्यादि) है, अतः 'हवः शिति' ४/१/१२ से द्वित्व होने पर 'चिकेति' रूप होगा ॥३३॥
२. क्षी जिरिट हिंसायाम् । उदा. 'पद्मानि नो चेत् किमयं क्षिणोति' । क्षिणूयी हिंसायाम्, धातु में गुण होने से 'क्षेणोति' इत्यादि रूप होते हैं । ॥३४॥
३. जिरिट् का 'जिरिणोति' रूप होता है । ॥३५॥
४. 'चिगण चये'२ । यह धातु चुरादि भी है और घटादि भी है, अतः "णिच्' होने पर 'चि' का 'चै' होकर 'चाय' होगा और घटादि होने से 'घटादेईस्वो-४/२/२४ से ह्रस्व होने पर 'चययति' रूप होगा । अन्य वैयाकरण 'चिस्फुरोर्नवा' ४/२/१२ से इस धातु के स्वर का आत्व करते नहीं हैं। 'जि' या 'णम् परक णि' प्रत्यय होने पर विकल्प से दीर्घ होकर 'अचायि, अचयि, चायंचायं, चयंचयं' रूप होते हैं । 'णिच्' अनित्य होने से उसके अभाव में 'चयति चयते' रूप भी होते हैं। जबकि चुरादि और घटादि दोनों प्रकार के 'चि' धातु को छोडकर 'चिंगट् चयने' धातु के 'चिनुते, चिनोति' इत्यादि रूप होते हैं । णि प्रत्यय होने पर 'चिस्फुरोर्नवा' ४/२/१२ से 'आ' विकल्प से होगा । अतः जब'आ' होगा तब 'चापयति' होगा और 'आ' नहीं होगा तब 'चाययति' होगा। 'जि' या 'णम् परक णि' होने पर 'अचापि, चापंचापं, अचायि, चायंचायं' रूप होंगे ॥३६॥
नव धातु दीर्घ ईकारान्त हैं । 'दीधीकि दीप्तिदेवनयोः' । 'दीधीते' । 'क्ति' प्रत्यय होने पर निपातन से 'दिधीतिः' शब्द होता है । ॥३७॥ न्या. सि. १. इस उदाहरण के स्थान पर श्रीलावण्यसूरि निम्नोक्त दो उदाहरण देते हैं ।
यदि नाम जिगीषयापि ते निपतेयुर्वचनेषु वादिनः । चिरसंगतमप्यसंशयं क्षिणुयुर्मानमनर्थसंचयम् ॥ [ सिद्धसेनीय चतुर्थ द्वात्रिंशिका श्लोक-१४]
और 'शस्त्रेण रक्ष्यं यदशक्यरक्षं, न तद्यशः शास्त्रभृतां क्षिणोति । [ रघुवंश. द्वि. स.] इति कालिदासः । २. पाणिनीय परम्परा में 'वैयाकरण सिद्धान्त कौमुदी' में चुरादि गण के घटादि-"चिगण्' धातु के स्वर का विकल्प से 'आ' करते हैं अतः 'चपयति' और 'चययति' रूप भी होते हैं।
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