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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण )
'ललण् ईप्सायाम्, ललयति ।' अद्यतनी में 'ङ' प्रत्यय होने पर 'अलललत्' । जबकि 'ललिण् ईप्सायाम्' धातु अकारान्त नहीं है और आत्मनेपदी होने से 'लालयते, अलीललत' इत्यादि रूप होते हैं । ॥ १९ ॥
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'मलण् धारणे' । वृद्धि न होने से 'मलयति' । परि उपसर्ग के साथ इस धातु से 'युवर्ण'५/३/२८ से 'अल्' प्रत्यय होकर 'परिमल' शब्द होता है ॥२०॥
स्वो. न्या. : 'स्तन, ध्वन, स्वन, स्यम, षम, ष्टम' ये छः धातु भ्वादि गण में व्यञ्जनान्त बताये है वे छः धातु यहाँ अकारान्त हैं, ऐसा 'सभ्य' कहते हैं । 'मलि धारणे' धातु को कुछेक वैयाकरण चुरादि गण में अकारान्त मानते हैं ।
१‘वल्पुल, वल्पूल, पल्पुल, पप्पूल, वत्पूलण् लवनपवनयो:' । इन पाँच धातुओं में बीच में औष्ठ्य व्यञ्जन 'प' आया हुआ है । 'वल्पुलयति, वल्पूलयति, पल्पुलयति, पप्पूलयति, वत्पूलयति क्षेत्रं सबुसधान्यं वा । ' ( वह क्षेत्र को पवित्र करता है या वह घास सहित धान्य लुनता है ।) यथासंभव सन्वद्भाव और ह्रस्व न होने से 'अववल्पुलत्, अववल्पूलत्, अपपल्पुलत्, अपपल्पूलत् अववत्पूलत्' इत्यादि रूप होते हैं । ।२१-२२-२३-२४-२५॥
'कुमालण् क्रीडायाम् । कुमालयति'। 'ङ' होने पर ह्रस्व न होकर 'अचुकुमालत्' । 'सु' से युक्त इस धातु से 'अच्' प्रत्यय होने पर 'सुकुमाल' शब्द होता है | ||२६||
'पशण् अनुपसर्गो वा' । इस धातु का अर्थ बताया गया नहीं है, किन्तु कुछेक वैयाकरण उसे 'गत्यर्थक' मानते हैं । यह विकल्प से अकारान्त माना गया है, अतः जब उसे अकारान्त मानेंगे तब वृद्धि नहीं होगी और सन्वद्भाव भी नहीं होगा अतः 'पशयति, अपपशत्' इत्यादि रूप होंगे और जब अकारान्त नहीं मानेंगे तब वृद्धि और सन्वद्भाव होगा, अतः 'पाशयति, अपीपशत्' इत्यादि रूप होते हैं । यह धातु उपसर्गरहित ही होना चाहिए । यदि उपसर्ग सहित हो तो 'पशी' स्वरूप उभयपदी धातु मानकर 'प्रपशते, प्रपशति' रूप होते हैं | ||२७||
'शशण् कान्तौ' । अकारान्त होने से वृद्धि नहीं होगी, अतः 'शशयति' रूप होगा । 'अनट्' होने पर 'शशनम्' । ण्यन्त होने से 'युवर्ण' - ५ / ३ / २८ से 'अल्' प्रत्यय होकर 'शश:' शब्द होगा
॥२८॥
'अन्सण् विभाजने' । 'व्यंसयति' । 'मयूरव्यंसक', समास में निपातन है। 'सन्' प्रत्यय होने पर 'स्वरादेः ' - ४ / १/४ से 'सि' का द्वित्व होने पर 'व्यंसिसयिषति' रूप होता है । 'शिड्हेऽनुस्वारः ' १ / ३ / ४० सूत्र में 'अनु' का अधिकार होने से द्वित्व करते समय 'न' ही माना जाता है, अतः 'न बदनं' - ४/१/५ से 'न' का द्वित्व नहीं होता है। उसी तरह ङ होने पर 'व्यांसिसत्' रूप होगा ।
यदि अनुस्वार पहले ही हो जाता तो अनुस्वार सहित 'सि' का 'स्वरादेः ' -४/१/४ से द्वित्व न्या. सि-: र, ल में अभेद मानकर 'अच्' प्रत्यय होने पर 'सुकुमार' शब्द होता है । 'व्यंसक' अर्थात् धूर्त्त ।
१.
यहाँ उपर बताये गये धातुओं में 'वल्पुल, वल्पूल, पल्पूल, पप्पूल, वत्पूल,' धातु हैं। ये सब धातु अन्य वैयाकरणों की मान्यतानुसार हैं । जबकि आचार्यश्री के अपने धातुपाठ में 'पल्पूलण्' पाठ है । द्रष्टव्य धातु नं. १९१६ ।
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