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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १२२)
३२७ हो इसलिए 'कर्मणि' शब्द रखा है।
वस्तुतः 'सृजः श्राद्धे'-३/४/८४ में श्राद्ध' का 'श्रद्धावान्' अर्थ और श्राद्धमद्यभुक्तमिकेनौ' ७/१/१६९ में 'श्राद्ध' का 'पितृदैवत्यं कर्म' अर्थ व्याख्या से ही प्राप्त है ऐसा कहना उचित नहीं क्योंकि 'सृजः श्राद्धे-' ३/४/८४ में 'कर्तर्यनद्भ्यः शव' ३/४/७१ से 'कर्तरि' शब्द की अनुवृत्ति चली आती है। अतः श्राद्ध' शब्द से श्रद्धावान्' का ही बोध हो सकता है। जबकि श्राद्धमद्यभुक्त'७/१/१६९ में 'श्राद्धं' और 'भुक्तं' में नपुंसकलिंग होने से, 'भुजि' के साहचर्य से 'श्राद्ध' का 'पितृदेवत्यं कर्म' अर्थ मालूम हो जाता है, अतः उसी अर्थ के लिए केवल व्याख्या की ही अपेक्षा नहीं रहती है। उसी प्रकार यहाँ भी 'शरदः श्राद्ध कर्मणि' ६/३/८१ में 'श्राद्ध' का 'पितृदेवत्यं कर्म' अर्थ ही स्वभाव से लिया जा सकता है और उसका ही बोध कराने के लिए सूत्र में 'कर्मणि' शब्द रखा है किन्तु इस न्याय के अनित्यत्व का ज्ञापन करने के लिए नहीं ।
केवल कातंत्र की दुर्गसिंहकृत परिभाषावृत्ति और जैनेन्द्र परिभाषावृत्ति में ही यह न्याय नहीं है, इसे छोड़कर सभी परिभाषाओं में यह न्याय स्वीकृत है। ॥१२२॥ यत्राऽन्यक्रियापदं न श्रूयते, तत्रास्तिर्भवन्तीपरः प्रयुज्यते ॥ ६५॥
जहाँ दूसरा कोई भी क्रियापद न दिखायी पड़ता हो वहाँ 'अस्ति' और 'भवन्ति' अर्थात् 'अस्' और 'भू' धातु के रूपों को क्रियापद के स्वरूप में मान लेना।
'यत्र' अर्थात् वाक्य के अङ्ग-स्वरूप पद-समुदाय में, इस प्रकार विशेष्य अध्याहार समझ लेना और 'अस्ति' से 'भवति, विद्यति' आदि समानार्थक धातुओं के रूप लिये जा सकते हैं तथा 'भवन्ति'-'वर्तमाना' के प्रयोग से उपलक्षण द्वारा प्रकरणानुसार 'सप्तमी, पञ्चमी, हस्तनी' आदि का भी प्रयोग होता है । आख्यातपदरहित होने से, वैसा पद-समुदाय वाक्य नहीं कहा जा सकता है। उसे वाक्य बनाने के लिए 'अस्ति' आदि आख्यात-पद का अवश्य प्रयोग करना पड़ता है। और 'सविशेषणमाख्यातं वाक्यम्' १/१/२६ सूत्र से आख्यात-पद को ही वाक्य संज्ञा की गई है, अतः
आख्यातपद के बिना वाक्य नहीं होता है, अतः आख्यात-पदरहित वाक्य-स्वरूप पद-समुदाय में 'अस्ति' आदि आख्यात पद को अध्याहार समझ लेना । आगे कहे गए उदाहरण में साक्षात् क्रियापद का अभाव होने से, उसके वाक्यत्व की किसी को शंका हो सकती है, इसे दूर करने के लिए यह न्याय है।
इसमें 'वर्तमाना' के 'भवन्ति' का प्रयोग इस प्रकार होता है । (१) 'जम्बुद्वीपस्तत्र सप्त वर्षाणि ।' यहाँ 'अस्ति' और 'सन्ति' अध्याहार है । (२) सप्तमी का प्रयोग :- "शिघुट्' १/१/२८ 'औदन्ताः स्वराः' १/१/४ , यहाँ 'स्यात्' और 'स्युः' अध्याहार हैं । (३) 'पञ्चमी' और 'आशी:' 'देवो मुदे वो वृषभः परे च', यहाँ 'अस्तु', 'सन्तु' अथवा 'भूयाद्, भूयासुः' अध्याहार हैं । (४) शस्तनी, अद्यतनी और परोक्षा-: 'अवन्त्यां विक्रम नृपस्तस्य द्वापञ्चाशद् वीराः ।' यहाँ आसीद्' और
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