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तृतीय वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. १३३ )
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प्रदेश है । इस सूत्र का कार्यप्रदेश 'शेषघुट्परकनकार' है, उसमें से केवल 'इन्' अन्तवाले, 'हन्, पूषन्' और ' अर्यमन्' शब्द का शेषघुट् प्रत्यय स्वरूप प्रत्यय लेकर, उसमें से केवल 'शि' और 'सि' प्रत्यय के लिए ही 'इन्हन्पूषार्यम्णः ' १/४/८७ से विधान करके, उससे भिन्न शेषघुट् प्रत्यय पर में आने पर 'नि दीर्घः ' - १/४/८५ से होनेवाली दीर्घविधि का परोक्ष रूप में निषेध किया गया है। 'नियम' सूत्र में नहीं कहे गए, अन्य नियत कार्यप्रदेश की निवृत्ति की कल्पना रूप गौरव है ।
अन्यशास्त्र में कोई भी व्याख्या के लिए नियम नहीं है । उसी शास्त्र में सब अपनी अपनी बुद्धि अनुसार व्याख्या कर सकते हैं, अतः वहाँ व्याख्या नियत नहीं है । उसी शास्त्र में विधिपरक भी अर्थ हो सकता है और नियमपरक अर्थ भी हो सकता है । इसमें कोई बन्धन नहीं है । जबकि व्याकरण में व्याख्या की ऐसी अनियमितता नहीं है । वह यह न्याय कहता है ।
जहाँ सूत्र का विधिपरक और नियमपरक ऐसे दोनों अर्थों का संभव हो वहाँ विधिपरक अर्थ ही श्रेष्ठ है ।
उदा. 'प्रत्यभ्यतेः क्षिपः ' ३/३/१०२ । इसी सूत्र में 'क्षिप्' धातु कौनसा लेना ? इसका निर्णय करने के लिए इस न्याय का आश्रय लेना है । 'क्षिप्' धातु दो प्रकार का है । (१) क्षिपत् प्रेरणे, तुदादि गण ( २ ) क्षिपंच् प्रेरणे, दिवादिगण । इन दोनों धातु में से तुदादि गण का क्षिपत् धातु लेने से विधिपरक अर्थ होगा क्योंकि यह धातु उभयपदी है। अतः सूत्र का विधिपरक अर्थ इस प्रकार होगा - : 'प्रति, अभि' और 'अति' उपसर्ग से पर आये हुए 'क्षिपत्' धातु को परस्मैपद होता है । जबकि दिवादिगण का 'क्षिपंच्' धातु लेने से नियमपरक अर्थ करना होगा क्योंकि यह धातु परस्मैपदी ही है, अत: सूत्र का अर्थ इस प्रकार होगा :- 'प्रति, अभि' और 'अति' उपसर्ग से पर आये हुए 'क्षिपंच्' धातु से परस्मैपद होता है, किन्तु अन्य उपसर्ग से पर आये हुए या उपसर्ग रहित 'क्षिपंच्' धातु से परस्मैपद नहीं होता है। किन्तु यही अर्थ इष्ट नहीं है, अतः विधिपरक अर्थ ही करना चाहिए ।
यह न्याय व्याडिपरिभाषापाठ, कातंत्रपरिभाषापाठ, कालापपरिभाषापाठ, पुरुषोत्तमपरिभाषापाठ, सीरदेव, नीलकंठ, हरिभास्कर व नागेश की वृत्तियों में भी है ।
॥१३३॥ अनन्तरस्यैव विधिर्निषेधो वा ॥ ११॥
'अनन्तर' सूत्र सम्बन्धित ही 'विधि' या 'निषेध' होता है ।
इसमें निषेध इस प्रकार है- 'नाम्नो नोऽनह्नः ' २/१/९१ सूत्र से नाम सम्बन्धित पदान्त 'न' का लोप होता है । उसका ही, बाद में आये हुए 'नामन्त्र्ये' २/१/९२ सूत्र से निषेध होता है किन्तु व्यवहित 'रात्सः' २/१/९० सूत्र से विहित सकार- लुक् का निषेध नहीं होता है।
विधि इस प्रकार है- 'नाम्नो नोऽनह्नः ' २/१/९१ से हुए 'न लोप' का 'नामन्त्र्ये' २/१/९२ से निषेध होता है । उसी निषेध का पुनः विकल्प से विधान होता है 'क्लीबे वा' २/१/९३ सूत्र से ।
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