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न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) भी प्रवृत्ति होती है । उदा. 'श्रेष्ठः श्रेयान्' प्रयोग में 'प्रशस्य' शब्द का 'इष्ठ' और 'ईयसु' प्रत्यय पर में आने परे 'श्र' आदेश करने का विधान 'गुणाङ्गाद्वेष्ठेयसू' ७/३/९ से किया गया है । 'इष्ठ' और 'ईयसु' प्रत्यय 'पटु, मृदु, गुरु, लघु' इत्यादि शब्द जैसे 'गुणाङ्ग' शब्द से गुणाङ्गाद्वेष्ठेयसू ७/३/९ से होता है। जबकि प्रशस्य' शब्द गुणप्रवृत्तिनिमित्तक नहीं है। किन्तु प्रशंसा रूप क्रियाप्रवृत्तिनिमित्तक है, अत: 'प्रशस्य' शब्द से 'इष्ठ, ईयसु' प्रत्यय होने की प्राप्ति नहीं है, तथापि ‘प्रशस्यस्य श्रः' ७/ ४/३४ विधान के सामर्थ्य से यहाँ 'इष्ठ, ईयसु' प्रत्यय होंगे ।
इसी व्याख्या से केवल अप्राप्त कार्य की प्राप्ति ही होती है।
इसके सिवाय 'विचित्रा सूत्राणां कृतिः ॥१॥ मात्रालाघवमप्युत्सवाय मन्यन्ते वैयाकरणाः ॥२॥ ते वै विधयः सुसगृहीता भवन्ति येषां लक्षणं प्रपञ्चश्च ॥३॥' इत्यादि न्याय स्वरूप विशेषवचन व्याकरणशास्त्र में उपलब्ध है, किन्तु वे सब केवल व्याकरण के सूत्र की रचना में ही उपयोगी है
और अन्य न्याय स्वरूप वचन भी केवल सूत्र के अर्थ की व्यवस्था में ही उपयोगी है किन्तु प्रस्तुत प्रयोगसिद्धि में उपयोगी नहीं है, अतः उनकी यहाँ उपेक्षा की गई है।
अन्य व्याकरण ग्रन्थ में 'यथोद्देशं निर्देशः' इत्यादि बहुत से न्याय है किन्तु प्रस्तुत व्याकरण में कहीं भी साक्षात् उल्लेख नहीं किया होने से, उनकी यहाँ उपेक्षा की गई है।
यह न्याय, वचन के और अभिधान के अद्भूत सामर्थ्य का बोधक है । इस न्याय का प्रयोजन केवल इतना ही है कि व्याकरणशास्त्र से शब्द बनाये नहीं जाते हैं किन्तु अखंड शब्द के, प्रकृति और प्रत्यय स्वरूप दो भागों की कल्पना करके अल्पप्रयत्न द्वारा, शब्द के अर्थ की अभिधा बतायी जाती है। अतः किसी शब्द का, कोई अर्थ व्याकरणशास्त्र से प्रतिपादित न हो सकता हो तथापि लोक में यदि ऐसे अर्थ की प्रसिद्धि हो तो, उसका स्वीकार करना चाहिए । तथा कोई शब्द व्याकरणशास्त्र से लभ्य अर्थ में, व्यवहार में प्रयुक्त न हो तो, वहाँ व्याकरणशास्त्र के बारे में शङ्का न करनी चाहिए किन्तु परम्परा से, उसी शब्द का वैसा अर्थ प्राप्त हो या शिष्टपुरुष द्वारा, उसी अर्थ में प्रयुक्त हो तो, व्याकरणशास्त्र से लभ्य अर्थ से भिन्न अर्थ में भी उसी शब्द की प्रवृत्ति का स्वीकार करना उचित है।
__इस प्रकार के न्यायों को अन्य वैयाकरणों ने न्याय/परिभाषा की कक्षा में नहीं रखे है, तथापि लक्ष्यसिद्धि में उपकारक होने से श्रीहेमहंसगणि ने, इनका संग्रह किया है।
इसके सिवाय 'विचित्रा सूत्राणां कृतिः' । इत्यादि न्यायों के उदाहरण इस प्रकार दिये जा सकते हैं । 'धातोरिवर्णोवर्णस्येयुव'- २/१/५० सूत्र मे 'इवर्णोवर्ण' के स्थान पर 'युवर्ण- वृदृ'५/३/२८ में प्रयुक्त 'युवर्ण' की तरह यहाँ भी 'यवर्ण' शब्द रखा जा सकता है और वैसा करने में लाघव भी है, तथापि अचार्यश्री ने 'इवर्णोवर्ण' शब्द रखा है, वह विचित्रा सूत्राणां कृतिः' न्याय बताने के लिए ही है।
मात्रालाघव अर्थात् सूक्ष्म लाघव भी, वैयाकरण के लिए अतिआनंद का विषय बन जाता
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