Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 427
________________ ३७४ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) 'रिहं हिंसाकत्थनादौ' 'कत्थन' अर्थात् श्लाघा-प्रशंसा । रेहति ' । अनुस्वार की इत् संज्ञा हुई है, अतः 'रेढा, रेढुम्' शब्द होंगे । 'रिहते' अर्थ में क्त प्रत्यय होकर स्वार्थ में 'क' प्रत्यय होने पर 'रीढकः' शब्द 'पृष्ठवंश/मेरुरज्जु/रीढ की हड्डी अर्थ में होता है । 'अनट्' प्रत्यय होने पर 'रेहणम्' भिदादि होने से अङ्' प्रत्यय होकर निपातन से रीढा' शब्द अवज्ञा/ अपमान अर्थ में होता है। ॥७॥ क्ष अन्तवाले दो धातु हैं । इन दोनों धातुओं को ष अन्तवाले धातु के साथ कहने चाहिए क्योंकि उसके अन्त में मूर्धन्य ष है, किन्तु वैचित्र्य बताने के लिए ही सभी वर्गों के अन्त में उसे बताया है। उसी प्रकार आगे भी परपठित धातुओं में जहाँ क्ष अन्तवाले धातुओं का सभी वर्ण के बाद पाठ किया हो, वहाँ भी यही कारण मान लेना । 'चुक्षि शौचे, चुक्षति' । 'क्त' प्रत्यय होने पर 'चुक्षितः' । 'क्तेटो गुरो:-'५/३/१०६ से 'अ' प्रत्यय होकर 'चुक्षा' शब्द बनता है । 'चुक्षा शीलमस्य' अर्थ मं 'अस्थाच्छत्रादे:'-६/४/६० से 'अञ्' प्रत्यय होकर 'चौक्षः' होता है और 'तस्य भावः कर्म वा' अर्थ में 'पतिराजान्त'-७/१/६० से 'ट्यण' प्रत्यय होने पर 'चौक्ष्यम्' होगा । ॥७९॥ 'चिक्षि विद्योपादने । चिक्षते । चिक्षितः ।' 'क्तेटो गुरोः'-५/३/१०६ से 'अ' प्रत्यय होने पर 'चिक्षा' शब्द होगा। ऊपर बताये हुए और 'आदि' शब्द से दूसरे भी धातुओं की सौत्रत्व से या लक्ष्यानुरोध से सिद्धि होती है। अब जो धातु कहे जायेंगे उसमें क्लवि, चुलुम्पि, कुचि, उद्धषि, उल्लकसि, क्रंशति' इत्यादि पाँच' धातुओं और 'स्तनादि षट्क' अर्थात् स्तन इत्यादि छ धातुओं कुल मिलाकर सोलह धातुओं को छोड़कर 'गहयति' पर्यन्त प्रायः सब धातु चुरादि गण के ही है । वस्तुतः चुरादि धातु अपरिमित संख्या में हैं, अत: उसका कोई निश्चित परिमाण नहीं है, अतः केवल लक्ष्यानुरोध से उसका अनुसरण करना, अत एव चन्द्रगोमिन् नामक वैयाकरण ने चुरादि गण अपरिमित होने से परमार्थ से लक्ष्यानुसार अनुसरण होता है, ऐसा मानकर केवल दो तीन ही चुरादि धातुओं का पाठ किया है किन्तु ज्यादा स्वो.न्या.-: 'पसन्ति निवसन्ति अत्र इति पस्त्यम् ।' जहाँ निवास किया जाय वह 'पस्त्यम्' अर्थात् गृहम् । 'भसितं दीप्तं तदिति' (भूतकाल में जो दीप्तिमान् था) वह 'भस्म' । यद्यपि उणादि प्रत्यय सामान्यतया वर्तमानकाल अर्थ में ही होते हैं, तथापि यहाँ 'बहुलम्' से भूतकाल अर्थ में हुआ है। न्या. सि. सिद्धहेम बृहद्वृत्ति में 'योषति-गच्छति पुरुषमिति योषित्' ऐसा विग्रह बताया होने से 'युषी' धातु का गति अर्थ भी आचार्यश्री को मान्य हो ऐसा लगता है। 'लुसभ' शब्द का अर्थ बृहद्वृत्ति में हिंसक प्राणी, मदोन्मत्त हाथी और वन बताया है । यहाँ सिद्धहेम बृहद्वृत्ति में 'भसि जुहोत्यादौ स्मरन्ति' कहा है और पाणिनीय परंपरा में भी 'भस भर्त्सनदीप्त्योः' धातु का जुहोत्यादि गण में पाठ किया है। 'लोहल' शब्द के बारे में श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि 'मुरलोरल'-(उणा-४७४) सूत्र में 'लोहल' शब्द नहीं है तथापि 'आदि' शब्द से, उसी सूत्र से 'लोहल' शब्द का निपातन होता है। इसी सूत्र में 'काहल' शब्द का अव्यक्तवाक् अर्थ में निपातन होता है किन्तु उसी शब्द का दूसरा अर्थ वाद्यविशेष अर्थ होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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