________________
३७२
न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) _ 'सल्ल गतौ, सल्लति' । उणादि के 'दृकृ-' (उणा-२७) सूत्र से 'अक' प्रत्यय होकर, गौरादित्व से स्त्रीलिङ्ग में 'डी' प्रत्यय होने पर 'सल्लकी' शब्द होगा ॥६४॥ ..
'हल्ल घूर्णने, हल्लति' । उणादि के 'दृकृ'- (उणा-२७) से 'अक' प्रत्यय होने पर 'हलकं' शब्द लालकमल अर्थ में होता है ॥६५॥
"भिलण् भेदे, भेलयति' । “णिच्' अनित्य होने से 'णिच्' के अभाव में 'अच्' प्रत्यय होने . पर 'भेलः' शब्द 'तरण्ड' छोटी-सी नौका अर्थ में होता है। 'डलयोरैक्ये' ड और ल को समान मानने
पर 'भेडः' शब्द बकरा अर्थ में होता है । उणादि के 'विलिभिलि'- (उणा-३४०) सूत्र से कित् 'म' प्रत्यय होने पर भिल्मं शब्द भास्वर (सकेद या देदीप्यमान) अर्थ में होता है । ॥६६॥
व अन्तवाले दो धातु हैं । १. 'धन्व तव गतौ', 'धन्वति' । उणादि के 'उक्षितक्षि'-( उणा९००) सूत्र से 'अन्' प्रत्यय होने पर 'धन्वन् (धन्वा)' शब्द 'मरुः' अर्थ में होता है । ॥६७॥
२. 'तव, तवति' । उणादि के 'तवेर्वा' ( उणा-५५०) सूत्र से विकल्प से 'णित्' होनेवाला 'इष' प्रत्यय होने पर 'ताविष' और 'तविष' शब्द स्वर्ग अर्थ में होंगे ॥६८॥
स्वो. न्या. -: 'लोलति पङ्के इति लुलायः' अर्थात् 'महिषः' भैंसा । 'तव्यते गम्यते पुण्यवद्भिः इति तविषः' (पुण्यवान् जहाँ जाय वह, स्वर्ग, तविष:)
न्या. सि-: 'उलप' शब्द के दूसरे अर्थ पंकज अर्थात् कमल, पानी और किसी ऋषि का नाम होता है। श्रीलावण्यसूरिजी ने 'हलकी' शब्द दिया है और उसके बारे में बताया है कि 'दृकृ-'( उणा-२७) सूत्र में हल्लि धातु का पाठ किया नहीं है, तथापि बहुवचन निर्देश से ' हल्लि' धातु का ग्रहण होता है । 'धन्वन्' शब्द का अर्थ 'मरुभूमि' और 'धनुष्य' होता है।
__ 'ताविष' शब्द का दूसरा अर्थ 'तेज, बल' होता है। श्रीलावण्यसूरिजी 'इष' प्रत्यय 'टित्' होने से ताविष और तविष शब्दों से स्त्रीलिङ्ग में 'ङी' प्रत्यय करके 'ताविषी' और 'तविषी' शब्द वात्या (भहावायु) और देवकन्या अर्थ में सिद्ध करते हैं । बृहद्वृत्ति में ऐसा बताया है।
श अन्तवाले तीन धातु हैं । 'पशी स्पशी बाधन ग्रथनयोश्च', बाधन अर्थात् प्रतीघात-प्रतिघोष करना । 'च' से गति अर्थ लेना । 'पशति, पशते' । गति अर्थवाले 'पश' धातु से 'गत्यर्थात् कुटिले' ३/४/११ सूत्र से 'यङ्' प्रत्यय होने पर 'जपजभ'-४/१/५२ से 'मु' आगम होगा और 'पम्पश्यते' रूप सिद्ध होगा और 'यङ्' का लोप होगा तब ‘पम्पशीति, पम्पष्टि' रूप होंगे ॥६९॥
___'स्पशी-स्पशते, स्पशति' । ङ परक 'णि' प्रत्यय होने पर सन्वद्भाव के अपवाद में 'मृदृत्वर प्रथम्रदस्तृस्पशेरः' ४/१/६५ सूत्र से पूर्व का 'अ' होने पर 'अपस्पशत्' रूप सिद्ध होता है । 'णि' प्रत्ययान्त 'स्पश्' धातु से 'क्त' प्रत्यय होने पर णौ दान्तशान्तपूर्णदस्तस्पष्टच्छन्नज्ञप्तम्' ४/४/७४ सूत्र से 'णि' का लोप और ह्रस्व दोनों का एकसाथ विकल्प से निपातन होने पर 'स्पष्टं' और 'स्पाशितम्' रूप होते हैं । 'अच्' प्रत्यय होने पर 'स्पशः' शब्द चर अर्थात् जासूस अर्थ में होता है। 'घञ्' प्रत्यय होने पर 'स्पाश' शब्द बन्धन अर्थ में होता है । लक्ष्य इस प्रकार है-"सेयमुभवत: स्पाशा रज्जुः" । उणादि के 'स्पशिभ्रस्जे:'-( उणा-७३१) सूत्र से कित् 'उ' प्रत्यय होकर 'स' का लोप होने पर 'पशुः' शब्द बनता है। ॥७॥
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org