Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 414
________________ ३६१ चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१) अब केवल दिग्दर्शन के लिए ही कुछेक अनुबंध के फल बताये जा रहे हैं । वह इस प्रकार है-स्तम्भू स्तम्भे', स्तम्भ अर्थात् क्रियानिरोध (स्थिर होना), 'स्तभ्नाति, स्तभ्नोति' प्रयोग में 'स्तम्भू-स्तुम्भू-स्कम्भू-स्कुम्भूस्कोः श्ना च '३/४/७८ से 'श्ना' और 'श्नु' प्रत्यय होते हैं, तब 'नो व्यञ्जनस्यानुदितः' ४/२/४५ से 'न' का लोप होता है । कर्मणि प्रयोग में 'क्य' प्रत्यय पर में होने पर 'स्तभ्यते' होता है । 'ऊदित्' होने से 'ऊदितो वा' ४/४/४२ से 'क्त्वा' प्रत्यय पर में होने पर 'वेट' होता है, अत: जब 'इट्' नहीं होगा तब 'स्तब्वा' होगा और 'इट' होने पर, 'सेट् क्त्वा' होने से क्त्वा' ४/३/२९ सूत्र से 'क्त्वा' में 'कित्त्व' का अभाव होने पर 'न' का लोप नहीं होता है, अतः ‘स्तम्भित्वा' रूप होगा और 'वेट्' होने से 'वेटोऽपतः' ४/४/६२ से 'क्त, क्तवतु' के आदि में 'इट' न होने से 'स्तब्धः स्तब्धवान्' रूप होंगे । अद्यतनी में 'ऋदिच्छ्वि -'३/४/६५ से विकल्प से 'अङ्' होने पर 'अस्तम्भत्, अस्तम्भीत्' रूप होते हैं । उणादि में 'अग' और 'पुल' से पर आये हुए 'स्तम्भ' धातु से 'अगपुलाभ्यां-' (उणा३६३) से डित् 'य' प्रत्यय होने पर 'अगस्त्यः 'और 'पुलस्त्यः' शब्द बनते हैं । 'स्तभ्नाति' अर्थ में 'जजल तितिल' ( उणा-१८) से 'तिन्तिभः' निपातन होता है, और उससे 'तस्याऽपत्यं वृद्धं' अर्थ में 'गर्गादि' होने से 'यञ्' प्रत्यय होने पर 'तैन्तिभ्यः' शब्द होता है। यहाँ वर्ण के अनुक्रम से सिद्धि बताने की प्रतिज्ञा की गई है तथापि 'स्तम्भू' इत्यादि सौत्र धातु हैं, ऐसी वृद्धो की उक्ति ( प्राचीन परम्परा) होने से प्रथम 'स्तम्भू' का कथन किया है । ऐसे वृद्धों की उक्ति अनुसार 'क्लवि' इत्यादि 'लौकिक' होने से और 'चुलुम्प' इत्यादि धातु वाक्यकरणीय' होने से क्रम में प्रथम लिए गये हैं ॥१॥ आकारान्त धातु : 'तन्द्रा आलस्ये' धातु का 'तन्द्राति' रूप होता है । 'शीश्रद्धानिद्रातन्द्रा दयिपतिगृहिस्पृहेरालुः' ५/२/३७ से 'तन्द्रा' धातु से 'आलु' प्रत्यय होने पर 'तन्द्रालु' शब्द होता है ॥२॥ चार धातु इकारान्त है । १. 'कि ज्ञाने, कयति' । 'कि' धातु से 'उणादि' के 'जनिपणि'(उणा-१४०) से 'ट' प्रत्यय होने पर दीर्घ होकर 'कीटः' शब्द बनता है । 'किशृ' -(उणा- ४३५) से 'कर' प्रत्यय होने पर केकरो वक्रदृक्', 'तिनिश्'-(उणा-५३७) से 'किश' प्रत्यय होने पर 'कीशः' अर्थात् 'मर्कटः' शब्द बनता है ॥३॥ . २. पति पतने धातु के 'अपतायीत्, पतयति' इत्यादि रूप होते हैं । 'शीङ् श्रद्धा-' ५/२/ ३७ से 'आलु' प्रत्यय होने पर 'पतयालुः' शब्द होता है और 'चुरादि' के अकारान्त 'पतण्' धातु से भी 'पतयालुः' शब्द होता है । ॥४॥ ३. 'गृहि ग्रहणे' धातु के 'गृहयति, अगृहायीत्' इत्यादि रूप होते हैं, जबकि 'गृहणि ग्रहणे' धातु (चुरादि) के 'गृहयते, अजगृहत' इत्यादि रूप होते हैं । इन दोनों धातुओं से 'शीश्रद्धानिद्रा' १. न्यायसंग्रह में श्रीहेमहंसगणि ने चुरादि के अकारान्त गृह धातु का वर्तमानकाल में 'गृहयते' रूप दिया है, जबकि श्री लावण्यसृरिजी ने गृह्यते दिया है, जो मुद्रणदीप होने का संभव है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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