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चतुर्थ वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १४१ )
ह्रस्वशाखस्तरु : ' (छोटी शाखावाला वृक्ष) शब्द होगा । ॥४७॥
४. 'टुप संरम्भे, टोपति' । 'आङ्' उपसर्ग के साथ 'टुप' धातु से 'अनट्' प्रत्यय होने पर 'आटोपनम् ' । ' घञ्' प्रत्यय होने पर 'आटोप: ' शब्द होता है | ॥४८॥
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ब अन्तवाला 'बिम्ब दीप्तौ,' सुहाना, 'बिम्बति' | ॥४९॥
भ अन्तवाले पाँच धातु हैं । 'रिभि, स्तुम्भू, स्कम्भू स्तम्भे ।' ये तीन धातु स्थिर / स्तंभित करना अर्थ में हैं । 'विरेभते स्म', 'क्षुब्ध - विरिब्ध-स्वान्त-ध्वान्त-लग्न-म्लिष्ट- फाण्ट- बाढ - परिवृढं मन्थ स्वर मनस्तमः सक्ताऽस्पष्टानायासभृशप्रभौ' ४/४/७० से निपातन होने पर 'इट्' का अभाव और 'विरिब्धः ' शब्द 'स्वर' अर्थ में होता है । अन्य अर्थ में 'विरिभित' शब्द होता है | ॥५०॥
स्वो. न्या. -: 'धनु' शब्द का जब अस्त्र अर्थ होता है तब ' धातूनामनेकार्थत्वम्' न्याय से 'धन्' धातु का 'शब्द' अर्थ करने पर 'दधन्ति इति धनुः' ऐसा वाक्य होगा और धान्य अर्थ करने पर 'दधनति तिष्ठन्ति धान्यानि अत्र इति धनुः' ऐसा वाक्य होगा । यहाँ धान्य विषयक स्थिति इत्यादि क्रिया ज्ञातव्य है । 'क्षोपन्ति ह्रस्वी भवन्ति शाखादयोऽत्र इति क्षुप:' जिसकी शाखा इत्यादि छोटी छोटी हो वह 'क्षुपः ' । न्या. सि. -: 'धनुः' शब्दका दूसरा अर्थ 'दानमान' बताया 'और 'धनू:' शब्द के अन्य अर्थ में 'ज्या' (धनुष्ध की डोर) और 'वरारोहा' (उत्तम स्त्री) भी होता है। 'कपाल' का अर्थ घट का एक भाग (अर्ध घट) और खोपड़ी होता है ।
'स्तुम्भू' धातु से 'स्तम्भूस्तुम्भू-' ३/४ /७८ से 'श्ना' और 'श्नु' प्रत्यय होता है, अतः ' स्तुभ्नाति, स्तुभ्नोति' रूप होते हैं । कर्मणि प्रयोग में 'न' का लोप होने पर 'स्तुभ्यते, 'ऊदित्' होने से 'क्वा' प्रत्यय होगा तब वह 'वेट्' होगा, अतः 'स्तुब्ध्वा, स्तुम्भित्वा' और 'वेट्' होने के कारण 'क्त, क्तवतु' प्रत्यय पर में आने पर 'वेटोऽपत: ' ४/४/६२ से 'इट्' का अभाव होकर 'स्तुब्धः, स्तुब्धवान्' शब्द होंगे ॥५१॥
'स्कम्भू' धातु से पूर्व की तरह 'श्ना' और 'श्नु' प्रत्यय होता है । 'विष्कभ्नाति' प्रयोग में 'स्कभ्नः ' २/३/५५ सूत्र से 'वि' से पर आये हुए 'स' का 'ष' होगा। जब 'श्नु' प्रत्यय होगा तब 'ष' नहीं होता है और 'विस्कभ्नोति' होता है । कर्मणि प्रयोग में 'क्य' प्रत्यय होकर 'विष्कभ्यते' होता है । 'ऊदित्' होने से 'क्त्वा' प्रत्यय पर में आने पर 'वेट्' होगा । अतः 'स्कब्ध्वा' और 'स्कम्भित्वा' रूप होंगे । वेट् होने से 'क्त' और ' क्तवतु' प्रत्यय के आदि में 'इट्' नहीं होगा । अतः 'स्कब्धः, स्कब्धवान्' रूप होंगे ॥५२॥
'स्कुम्भू विस्तारणे च' यह धातु विस्तारण और 'च' से स्तंभित करना अर्थ में है। पूर्व की तरह 'श्ना' और 'श्नु' प्रत्यय होता है, अतः 'स्कुभ्नाति, स्कुभ्नोति' रूप होते हैं । 'क्य' प्रत्यय होने पर कर्मणि में 'स्कुभ्यते' होता है । 'ऊदित्' होने से 'वेट्' होगा, अतः 'स्कुब्ध्वा, स्कुम्भित्वा, स्कुब्धः, स्कुब्धवान्' इत्यादि रूप होते हैं । उणादि के 'जम्बीर- ( उणा - ४२२ ) सूत्र से 'ईर' प्रत्यय होने पर निपातन से 'कुम्भीर' शब्द होता है । 'कः' अर्थात् वायु, 'क' से युक्त यही स्कुम्भू धातु से 'ककुप्त्रिष्टुप् ' - ( उणा - ९३२ ) से 'क्विप्' प्रत्यय होकर, निपातन से 'ककुप्' शब्द 'दिशा' अर्थ में होता
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