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तृतीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १३८)
३५१ अन्यथा इष्ट/अनिष्ट अर्थ की प्रतीति न हो , इसके लिए यह न्याय है ।
इस न्याय के 'परः' शब्द को उपलक्षण के स्वरूप में लेने पर, द्वन्द्वसमास की पूर्व में आये हुए शब्द का भी द्वन्द्वसमासगत प्रत्येक शब्द के साथ सम्बन्ध होता है। उदा. 'द्रेजणोऽप्राच्यभर्गादेः ६/१/१२३ सूत्रगत 'अप्राच्यभर्गादेः' में आये हुए अ (नञ् ) का 'प्राच्य' और 'भर्गादि' दोनों के साथ सम्बन्ध है, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं ।
इसके समर्थन में श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि अन्य वैयाकरणों ने 'द्वन्द्वान्ते द्वन्द्वादौ वा श्रूयमाणं पदं प्रत्येकमभिसम्बध्यते' इस प्रकार की व्युत्पत्ति की है। उसके एक ही अंश का कथन इस न्याय में किया गया है। जिसमें पूर्वोक्त शब्द का द्वन्द्व समासगत प्रत्येक शब्द के साथ सम्बन्ध होता है, ऐसे प्रयोग भी व्याकरण में प्राप्त हैं, अतः इस प्रकार से इस न्याय की व्याख्या करना उचित है।
इस न्याय का उपयोग प्रत्येक वैयाकरण ने किया है, तथापि न्याय/परिभाषा के स्वरूप में किसी भी परिभाषासंग्रहकार ने इसका उल्लेख नहीं किया है।
॥१३८॥ विचित्रा शब्दशक्तयः ॥१६॥ शब्द की शक्ति विचित्र होती है।
शब्द की शक्ति विचित्र होती है, अत: लिंग, संख्या इत्यादि में विचित्रताएँ दिखायी पडती हैं, यही बताने के लिए यह न्याय है। उसमें लिंग की विचित्रता इस प्रकार है। उदा. 'प्रशस्तं पचति' अर्थ में 'त्यादेश्च प्रशस्ते रूपप्' ७/३/१० सूत्र से स्वार्थ में 'रूपप्' प्रत्यय होगा, तब पचतिरूपम्' इत्यादि में 'पदं वाक्यमव्ययं चेत्यसङ्ख्यं च' (लिङ्गा पं ४-२) इत्यादि लिङ्गानुशासन के पाठ से लिङ्ग रहित 'त्याद्यन्त पद' को भी नपुंसकलिङ्ग होता है । 'कुत्सिता स्वा ज्ञातिः' अर्थ में स्वार्थिक 'क' प्रत्यय होने पर 'स्वज्ञाजभस्त्राधातुत्ययकात्' २/४/१०८ से 'आप' प्रत्यय होगा और 'अ' का 'इ' होकर स्विका' शब्द बनेगा । यहाँ 'कामलकुद्दालावयवस्याः' (लिङ्गा पु.१४/१) पाठ से ज्ञाति अर्थवाले पुल्लिङ्ग 'स्व' शब्द को भी, जब कुत्सित अर्थ की विवक्षा होगी तब वाक्य अवस्था में कप्' प्रत्यय होने के बाद स्त्रीलिङ्ग माना जाता है ।
और 'हुस्वा कुटी' प्रयोग में 'कुटीशुण्डाद्रः' ७/३/४७ से 'कुटी' शब्द से स्वार्थ में 'र' प्रत्यय होगा तब 'कुटीर:' और 'कुटीरम्' होगा । यहाँ 'कुटी' शब्द लिङ्गानुशासन के 'लालसोरभसो वर्तिवितस्तिकुट्यस्त्रुटि: (लिङ्गा पुं. स्त्री ९/२) वचन से पुल्लिङ्ग तथा स्त्रीलिङ्ग होने पर भी, स्वार्थिक 'र' प्रत्ययान्त 'कुटीर' शब्द पुल्लिङ्ग और नपुंसकलिङ्ग में माना जाता है।
और 'वनं वनिका' । यहाँ 'वन' शब्द 'नान्त' होने से 'नलस्तुक्तसंयुक्तः' (लिङ्गा न.१/१) पाठानुसार नपुंसकलिङ्ग होने पर भी स्वार्थ में 'कप्' प्रत्यय होने पर, वह स्त्रीलिङ्ग हो जायेगा।
शब्दशास्त्र में लिङ्ग बताने की दो पद्धतियाँ हैं । (१) अन्य विशेषण स्वरूप पद की अपेक्षा से शब्द का लिङ्ग प्रतीत होता है । उदा. 'इयं गौः, अयं गौः' । यहाँ 'गौ' शब्द का अर्थ दोनों लिङ्ग
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