Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 403
________________ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) इन रूपों के बारे में टिप्पणी करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि इन रूपों में से केवल प्रथम रूप ही शास्त्रकार आचार्य श्री को सम्मत है, जबकि शेष तीनों रूप शास्त्रकार को सम्मत नहीं हैं क्योंकि प्रथम उदाहरण देते समय 'यदि' अर्थवाले 'अथ' शब्द का शास्त्रकार ने प्रयोग नहीं किया है । जबकि शेष उदाहरण की सिद्धि करते समय 'अनभिमतत्व' का सूचक 'यदि' अर्थवाले 'अथ' शब्द का प्रयोग किया है, अतः वही उदाहरण शास्त्रकार को सम्मत नहीं है ऐसा मानना पडता है । यही अनभिप्रेत तीन उदाहरण में से अन्तिम 'त्वस्मिन् - मस्मिन्' प्रयोग को वे नितान्त अनिष्ट प्रयोग मानते हैं, जिनका श्रीमहंसगणि ने इष्ट प्रयोग के रूप में स्वीकार किया है। इसके बारे में उनका तर्क इस प्रकार है । 'आचक्षाण' अर्थवाले 'णि' अन्तयुक्त 'युष्मद्- अस्मद्' शब्द से 'क्विप्' प्रत्यय होकर निष्पन्न हुए 'युष्म् अस्म्' में सर्वादित्व नहीं आता है क्योंकि वह गौण है और संज्ञोपसर्जनीभूत / गौण में सर्वादित्व मानना अनिष्ट है। दूसरा यह कि - 'सर्वादेः स्मैस्मातौ' १/४/७ सूत्र की बृहद्वृत्ति में कहा है कि "द्वि- युष्मद् भवत्वस्मदां स्मादयो न संभवन्तीति सर्वविभक्त्यादयः प्रयोजनम्" अतः इस विधान के आधार पर 'त्वस्मिन्-मस्मिन्' प्रयोग में 'ङि' का 'स्मिन्' आदेश करना अनुचित है । किन्तु इन प्रयोगों के बारे में ज्यादा विचार करने पर लगता है कि उपर्युक्त चारों प्रयोगों में से प्रथम प्रयोग 'युष्यि, अस्यि' व्याकरण से सिद्ध हो सकता है, और वह व्याकरण सम्मत ही है। जबकि शेष तीन प्रकार के प्रयोग लोकव्यवहार में या साहित्य में प्रयुक्त होने चाहिए। अतः उनका शिष्टप्रयोग के रूप में स्वीकार करके उसकी सिद्धि करके व्याकरण में उसका संग्रह किया गया है। यदि इन तीनों प्रकार के प्रयोगों को शास्त्रकार ने अनिष्ट मानें होते, तो उसका निषेध ही किया गया होता या उसका संग्रह ही न किया होता । तथापि सिद्धहेम बृहद्वृत्ति में उसका उल्लेख हुआ है इससे सूचित होता है कि ये प्रयोग शास्त्रकार को सर्वथा असम्मत नहीं हैं / सर्वथा अनिष्ट नहीं है अर्थात् कुछेक अंश में वे सम्मत हैं । अन्ततोगत्वा, लोकव्यवहार में प्रयुक्त सब प्रकार के शब्द प्रयोग का संग्रह करना ही व्याकरण का लक्ष्य / ध्येय है । (प्रयुक्तानामिदमन्वाख्यानम् ) इस प्रकार यहाँ लोकप्रयुक्त 'त्वस्मिन् - मस्मिन्' प्रयोग को इष्ट मानकर, इनकी सिद्धि की गई है, अतः व्याकरणशास्त्र की अपेक्षा से ये प्रयोग अनिष्ट होने पर भी शिष्ट प्रयोगानुसार, उनको इष्ट मानने चाहिए। यह न्याय भी अन्यत्र कहीं नहीं है । ३५० ॥१३७॥ द्वन्द्वात्परः प्रत्येकमभिसम्बध्यते ॥ १५॥ 'द्वन्द्व' समास के अन्त में आये हुए शब्द का, पूर्व के प्रत्येक शब्द के साथ सम्बन्ध होता है । 'शब्द' शब्द यहाँ अध्याहार है । उदा. 'एकद्वित्रिमात्रा ह्रस्वदीर्घप्लुताः ' १/१/५ सूत्र में 'एकद्वित्रिमात्रा' शब्द में अन्त में आये हुए 'मात्रा' शब्द, पूर्व के 'एक, द्वि' और 'त्रि' के साथ जोड़कर अर्थ होता है । 'एकद्वित्रि' में द्वन्द्व समास है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470