Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 402
________________ तृतीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १३६) ३४९ है, और जहाँ प्रकृति का ही लोप हो जाता है वहाँ केवल प्रत्यय ही प्रकृति का भी अर्थ कह देता है। उदा. 'क्विप्' प्रत्यय कहीं भी श्रूयमाण नहीं है अत: वही 'क्विप्' प्रत्यय जिससे हुआ हो वही मूल प्रकृति ही 'क्विप' के अर्थ को भी कहती है, ऐसा यह न्याय कहता है। जैसे 'छिद्, भिद्' इत्यादि । इनमें मूल प्रकृति ही 'क्विप्' का अर्थ कहती है । जबकि 'अस्य अपत्यं इः' प्रयोग में 'अ' प्रकृति है और 'इ' प्रत्यय है । यहाँ 'अ' स्वरूप प्रकृति का लोप होने से अकेला 'इ' प्रत्यय ही प्रकृति के अर्थ को भी कह सकता है। इस न्याय के न्यास में श्रीहेमहंसगणि 'त्वस्मिन्' और 'मस्मिन्' प्रयोग के बारे में चर्चा करते हुए कहते हैं कि व्याकरण शिष्ट प्रयोग की सिद्धि के लिए ही है और शिष्ट प्रयोग- 'त्वस्मिन्-मस्मिन्' स्वरूप ही दिखायी पड़ते हैं । और 'स्मिन्' आदेश, बिना 'सर्वादित्व' नहीं हो सकता है । यहीं 'सर्वादित्व', केवल 'युष्मद्-अस्मद्' और 'णिच् क्विबन्त युष्मद्- अस्मद्' में अभेद- विवक्षा द्वारा ही प्राप्त होता है, और इस प्रकार पूर्वाचार्यों ने बताया ही है । अतः 'गजगुड' के दृष्टान्त द्वारा हमने भी उसका समर्थन किया है। 'त्वस्मिन्-मस्मिन्' रूप ही इस न्याय के उदाहरण हैं । जबकि 'त्वे-मे' इस न्याय की अनित्यता के उदाहरण हैं। सामान्यतया न्याय की वत्ति में प्रथम न्याय का उदाहरण, बाद में उसका ज्ञापक, उसके बाद उसी न्याय की अनित्यता का उदाहरण और उसका ज्ञापक बताया जाता है। किन्तु यहाँ प्रथम इस न्याय की अनित्यता का उदाहरण देकर, बाद में न्याय का उदाहरण दिया है, उससे सूचित होता है कि शास्त्र की गति विचित्र होती है। इसी कारण से इस न्याय के उदाहरण के क्रम में विसंगतता नहीं माननी चाहिए। सिद्धहेम के 'मोर्वा' २/१/९ सूत्र की बृहद्वृत्ति में इस न्याय का उल्लेख प्राप्त है । वह इस प्रकार है -: "अथ 'क्विबर्थं प्रकृतिरेवाह' इति सर्वादिसम्बन्धित्वं तदा भवत्येव स्मिन्नादेशः ।" __यद्यपि आचार्यश्री ने इसी सूत्र की वृत्ति में 'युवां युष्मान् आवाम् अस्मान् वा आचष्टे' विग्रह करके 'णिच्' और 'क्विप्' प्रत्यय करके, इसका लोप होकर 'युष्म्-अस्म्' शब्द होगा, तब 'टा, डि' और 'ओस्' प्रत्यय पर में आने पर, 'त्व-म' आदेश से 'म्' का 'य' करने की विधि नित्य होने से प्रथम 'टाइयोसि यः' २/१/७ से यत्व विधि करके 'युष्या-अस्या, युष्यि, अस्यि' तथा 'युष्योः, अस्योः' रूप सिद्ध किये हैं । यदि 'युष्म्-अस्म्' को अन्य शब्द मान लें तो 'यत्वविधि'और 'त्वम' आदेश में, 'त्व-म' आदेश पर होने से, उसे बलवान् मानकर, 'युष्म्-अस्म्' का 'त्व-म' आदेश करने के बाद 'टाङ्योसि यः २/१/७ से 'त्व-म' के अन्त्य 'अ' का 'य' होने पर त्व्या, म्या, त्व्यि, म्यि' और 'युव्योः, आव्योः' रूप होंगे। किन्तु 'त्व-म' आदेश होने के बाद 'सकृद्गते स्पर्द्ध-' न्याय से 'यत्व विधि' का नित्य बाध मानने पर, यत्व के अभाव में 'त्वेन, मेन, त्वे, मे' रूप भी हो सकते हैं, क्योंकि यहाँ 'त्व-म' को सर्वादि नहीं मानने से 'ङि' का 'स्मिन्' आदेश नहीं होता है। इस प्रकार सिद्धहेम बृहद्वृत्ति में (१) 'युष्यि, अस्यि (२) त्व्यि, म्यि (३) त्वे, मे' तथा (४) 'त्वस्मिन्-मस्मिन्' चार प्रकार के रूपों का संग्रह किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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