Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 399
________________ ३४६ न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) यह न्याय केवल चान्द्र, कातंत्र की दोनो परिभाषावृत्तियाँ, कातंत्र परिभाषापाठ, कालाप परिभाषापाठ व जैनेन्द्र परिभाषावृत्ति में नहीं है। ॥ १३५ ॥ न केवला प्रकृतिः प्रयोक्तव्या ॥ १३ ॥ केवल प्रकृति का प्रयोग नहीं करना चाहिए । प्रकृति, नाम स्वरूप और धातु स्वरूप, दो प्रकार की होती है, किन्तु धातु में प्रत्ययान्तत्व के विवाद का अभाव होने से केवलत्व की शंका ही नहीं है । जबकि 'नाम' में आगे कहा जायेगा, वैसे प्रत्यय की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विवाद होने से केवलत्व की शंका होती है, अतः यहाँ केवल 'नाम' रूप प्रकृति का ग्रहण करना चाहिए । उदा. 'कटं करोति भीष्ममुदारं दर्शनीयम् ।' यहाँ यद्यपि साक्षात् 'कट' स्वरूप द्रव्य का ही क्रिया में उपयोग किया है, अत: 'कट' को ही क्रिया के साथ अनन्तर सम्बन्ध है, अतः इसमें कर्मत्व आता है किन्तु 'भीष्म, उदार, दर्शनीय' में सीधा किसी भी प्रकार से कर्मत्व आता नहीं है। 'भीष्म' आदि शब्द जब तक विभक्तिरहित होंगे तब तक उनका प्रयोग नहीं होगा और (कट के साथ) समान विभक्तियुक्त नहीं होंगे, तब तक सामानाधिकरण्यप्रयुक्त विशेषणत्व, उनमें नहीं आयेगा । अतः राजा के मित्र स्वयं निर्धन होने पर भी राजा के धन से ही वे भी धन के भोक्ता बनते हैं, वैसे 'भीष्म' आदि शब्द कर्म न होने पर भी कट के कर्मत्व से ही उनमें द्वितीया विभक्ति सिद्ध होती है। __ यहाँ यह शंका होती है कि विभक्ति रहित 'भीष्म' इत्यादि शब्दप्रयोग के अयोग्य/अनुचित होने से, इसी युक्ति से केवलत्व का व्यवच्छेद करने के लिए सामान्य विभक्ति स्वरूप प्रथमा विभक्ति ही करना उचित है, किन्तु कर्मशक्ति इत्यादि की द्योतक द्वितीया आदि नहीं । यह शंका दूर करने के लिए इस न्याय की दूसरी व्याख्या बताते हैं वह इस प्रकार है । यहाँ केवला' शब्द का क्या अर्थ है ? यहाँ केवला' अर्थात् क्रियारहित प्रकृति का प्रयोग नहीं करना किन्तु 'प्रयुज्यमान' या 'गम्यमान' ऐसी क्रिया सहित ही प्रकृति का प्रयोग करना । अतः यहाँ जैसे 'कट' का 'करोति' के साथ सम्बन्ध है, वैसे 'भीष्म' इत्यादि के साथ भी सम्बन्ध है । जैसे जो भी 'कट' बनाता है, वह उसमें स्थित 'भीष्म' इत्यादि गुण को भी बनाता है । अतः यहाँ 'करोति' से जो व्याप्ति योग्य है, वही सर्व द्रव्य, गुण, कर्म में भिन्न भिन्न कर्मत्व होने से, उन सब से द्वितीया विभक्ति होती है और बाद में 'एक वाक्य' के कारण विशेषण-विशेष्य रूप सम्बन्ध होता है । विशेषण को विशेष्य के समान ही विभक्ति करने के लिए यह न्याय है। यहाँ 'प्रकृति' शब्द से केवल 'नाम' स्वरूप प्रकृति ही ग्रहण करना, इस बात के साथ श्रीलावण्यसूरिजी संमत नहीं हैं । वे कहते हैं कि जैसे केवल 'नामार्थ' की विवक्षा में 'नाम' से प्रथमा विभक्ति होती है, वैसे धात्वर्थ की विवक्षा में 'घञ्' आदि या 'भाव' में 'त्यादि' प्रत्यय होते हैं, अतः धात्वर्थ की विवक्षा में प्रत्ययान्त धातु का प्रयोग करना या प्रत्ययरहित धातु का प्रयोग करना? इसका विवाद है ही, अतः 'प्रकृति' शब्द से धातु रूप प्रकृति भी यहाँ ग्रहण करना चाहिए । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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