________________
३२८
न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) 'आसन्' या 'अभूत्' और 'अभूवन्' या 'बभूव ' और 'बभूवुः' का प्रयोग समझ लेना । (५) श्वस्तनी-: 'अतः परं श्वो भोजनम्' । यहाँ 'भविता' अध्याहार है । (६) भविष्यन्ती -: 'अद्य नश्चतुषु गव्यूतेषु भोजनम् । भाविन्यां तु पद्मनाभः सुरदेव इत्यादि ।' यहाँ 'भविष्यति' और 'भविष्यन्ति' अध्याहार है । क्रियातिपत्ति का प्रयोग प्रायः साक्षात् ही होता है क्योंकि क्रियातिपत्ति के प्रयोग विना, उसका अर्थ प्रतीत नहीं होता है।
'तदस्य पण्यम्' ६/४/५४ इत्यादि सूत्र ही इस न्याय के ज्ञापक हैं । यहाँ 'अस्ति' क्रियापद है ही, अन्यथा अर्थसंगति नहीं होती है तथापि 'अस्ति' का साक्षात् प्रयोग नहीं किया है, वह इस न्याय के आशय से ही।
यह न्याय अनित्य है, अतः कदाचित् 'अस्' और 'भू' से भिन्न धातुओं के रूपों का प्रयोग भी अध्याहार होता है । उदा. 'अहम्' १/१/१ यहाँ 'प्रणिदध्महे' अध्याहार है ।
इस न्याय का मूल 'अनुपपत्ति मूलक तर्क' ही है । वह इस प्रकार -: 'येन विना यदनुपपन्नं तेन तदाक्षिप्यते' न्याय से यहाँ आख्यात पद' के बिना अनुपपन्न वाक्यत्व, आख्यात पद का आक्षेप कराता है और सर्वत्र ही अन्य अर्थवाले धातुओं का सम्बन्ध नहीं हो सकता है, और 'सत्ता' अर्थवाले 'अस्', 'भू' इत्यादि की अपेक्षा सब कारक में रहती है, अतः इनका यहाँ प्रयोग होता है।
श्रीलावण्यसूरिजी इस न्याय की अनित्यता का स्वीकार नहीं करते हैं । वे कहते हैं कि यहाँ जैसे 'भवन्तीपरः' में स्थित 'भवन्ति' स्वरूप 'वर्तमाना' के प्रयोग द्वारा उपलक्षण से अन्य विभक्ति के रूपों का भी स्वीकार किया है वैसे 'अस्ति' के उपलक्षण से यथायोग्य अन्य धातु सम्बन्धित प्रयोगों का भी प्रयोग होता है, इस प्रकार अर्थ करने से 'अहम्' १/१/१ में प्रणिदध्महे की अध्याहारता सिद्ध हो जाती है, अतः इस न्याय को अनित्य नहीं मानना चाहिए ।
यह न्याय भी लोकसिद्ध होने से सभी व्याकरणों में उसकी प्रवृत्ति हुई है तथापि अन्य किसी भी परिभाषासंग्रह में इसे न्याय के रूप में नहीं बताया है ।
इस प्रकार श्रीहेमहंसगणि द्वारा समुच्चित पैंसठ न्यायों की वृत्ति-विवेचन पूर्ण हुआ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org