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अथ कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेमचन्द्राचार्यविरचित श्रीसिद्धहेमचन्द्रशब्दानुशासनगत
पण्डित श्रीहेमहंसगणिभिः समुच्चितानां पूर्वेभ्यो विलक्षणानामष्टादशानां
न्यायानां तृतीयो वक्षस्कारः ॥ अथ श्रीहेमहंसगणि ने स्वयं एकत्रित किये हुए कुछेक न्याय और न्यायसदृश विशेषवचन कि जो प्राय: व्यापकत्व और ज्ञापक इत्यादि से रहित हैं, इनका सविस्तार विवेचन किया जाता है।
- ॥१२३ ॥ यदुपाधेर्विभाषा तदुपाधेः प्रतिषेधः ॥१॥
जिस 'उपाधि' से विशिष्ट की 'विभाषा' की गई हो, उसी 'उपाधि' से विशिष्ट का ही 'प्रतिषेध' होता है।
'इट्' के विषय में जिस 'उपाधि' से विशिष्ट की विभाषा की गई हो, उसका ही निषेध होता है । 'उपाधि' अर्थात् व्यवच्छेदक विशेषण ।
जिस विशेषण से विशिष्ट धातु या प्रत्यय सम्बन्धित 'इट्' की विभाषा अर्थात् विकल्पोक्ति की गई हो, उसी विशेषण से विशिष्ट का ही 'वेटोऽपत:' ४/४/६२ से 'इट्' निषेध करना किन्तु, उसी विशेषण से रहित का 'इट्' निषेध नहीं मानना ।
__इष्ट का नियमन करने के लिए यह न्याय है । उदा. 'गमहनविद्लूविशदृशो वा' ४/४/८३ से 'विलंती लाभे' धातु से ही 'इट्' निषेध होगा क्योंकि वह 'वेट्' है । जबकि 'विदक् ज्ञाने' धातु से पर में आये हुए 'क्त, क्तवतु' की आदि में 'वेटोऽपतः' ४/४/६२ से 'इट्' निषेध नहीं होता है किन्तु नित्य ही 'इट' होता है । उदा. 'विदितः, विदितवान्'
यहाँ किसीको शंका हो सकती है कि 'गमहनविद्ल-'४/४/८३ में 'विदल' सानुबंध का ग्रहण किया होने से 'विन्दति' का ग्रहण होता है क्योंकि वह 'वेट' है। जबकि 'वेत्ति' रूपवाले 'विद' धातु से पर में आये हुए ‘क्त, क्तवतु' के आदि में 'इट' निषेध नहीं होगा । अतः इस न्याय की यहाँ कोई आवश्यकता नहीं है । यह बात सत्य है किन्तु 'नानुबन्धकृतानि असारूप्यं-' न्याय से अनुबन्ध से हुआ वैरूप्य मान्य नहीं है और 'हषितः, हृषितवान्' अर्थात् तुष्टः, यहाँ 'वेटोऽपतः' ४/४/६२ से 'इट्' निषेध नहीं होगा क्योंकि 'केशलोमविस्मय' इत्यादि अर्थवाला ही 'हष्' धातु 'वेट्' है । 'तृष्ट्यर्थक हृष्' धातु 'सेट्' है ।
'नवा भावारम्भे' ४/४/७२ सूत्र का 'आदितः' ४/४/७१ सूत्र से पृथक् योग किया है, वह इस न्याय का ज्ञापक है । वह इस प्रकार -: 'आदितो नवा भावारम्भे' स्वरूप एक ही सूत्र करने से
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