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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण )
रु:' २/१/७२ से 'रु' होने के बाद 'रोर्यः ' १ / ३ / २६ सूत्र से 'रु' का 'य्' होने की प्राप्ति है किन्तु 'रोर्य: १/३/२६ सामान्यस्वरनिमित्तक है अतः उसका 'अतोऽति रोरु: '१/३/२० से बाध होगा, और उसकी ही प्रवृत्ति होगी क्योंकि 'अतोऽति रोरु: १/३/२० केवल अकार परनिमित्तक होने से
विशेष सूत्र है ।
प्राप्स्यद् अवस्था का उदाहरण इस प्रकार है : 'सोऽहं तथापि तव - ' ( भक्तामरस्तोत्र श्लोक५ ) इत्यादि प्रयोग में 'रोर्य: ' १/३/२६, 'तदः से:- ' १/३/४५ और 'अतोऽति रोरु : ' १/३/२० सूत्र की प्राप्ति का विचार करना है । 'रोर्य: ' १ / ३ / २६ सामान्य सूत्र है क्योंकि उसका विषय प्रत्येक 'रु' है । उसकी अपेक्षा से 'तदः से:- ' १/३ / ४५ सूत्र विशेष सूत्र है क्योंकि उसका विषय केवल 'सि' ही है। जबकि 'अतोऽति रोरु : ' १ / ३ / २० उपर्युक्त दोनों सूत्रों से भी विशेष सूत्र है क्योंकि उपर्युक्त दोनों सूत्र स्वरसामान्यनिमित्तक है । जबकि यह सूत्र केवल अकारनिमित्तक ही है । यहाँ 'तदः से: ' - १/३/४५ की प्राप्ति है, तब 'रोर्य : ' १/३/२६ और 'अतोऽति रोरु : ' १/३/२० सूत्र की प्राप्ति होने से पहले 'सो रु' २/१/७२ सूत्र की प्रवृत्ति होती है अर्थात् इन दोनों सूत्र की प्राप्ति 'सो रु ः ' २/१/७२ सूत्र से अन्तरित है अतः प्राप्स्यद् अवस्था कही जाती है । यदि 'तदः से:- ' १/३/४५ से 'सि' का लुक् न किया जाय तो 'सो रु' २/१/७२ सूत्र की प्रवृत्ति होने के बाद ही 'रोर्य: ' १/३/२६ और 'अतोऽति रोरु : ' १/३/२० सूत्र की प्रवृत्ति होती है ।
अतः 'तदः से: ' १/३ / ४५ रूप विशेष सूत्र से 'रोर्य : ' १ / ३ / २६ रूप सामान्य सूत्र का बाध होगा और 'तदः से:- ' १/३/४५ की प्रवृत्ति होने पर 'सो रु' २/१/७२ सूत्र का भी बाध होगा और 'सो रु : ' २/१/७२ की प्रवृत्ति नहीं होगी तो 'रोर्य: ' १ / ३ / २६ सूत्र की भी प्रवृत्ति नहीं होगी ।
'अतोऽति रोरु : ' १/३/२० की प्राप्ति होगी तब 'सो रु : ' २/१/७२ सूत्र की प्रवृत्ति का बाध नहीं होगा क्योंकि इस न्याय से 'अतोऽति रोरु : ' १/३/२० सूत्र से 'तदः से: ' - १ / ३ / ४५ का ही ध होता है । अत: 'अतोऽति रोरु : ' १ / ३ / २० सूत्र बलिष्ठ होने से, 'सो रु: '२/१/७२ सूत्र की प्रवृत्तिपूर्वक ही उसकी प्रवृत्ति होगी और 'सोऽहम् ' रूप की सिद्धि होगी ।
'न्यायसंग्रह' के यही प्राप्स्यद् अवस्था के उदाहरण का श्रीलावण्यसूरिजी ने खंडन किया है और श्रीमहंसगणि को भी यही उदाहरण मान्य नहीं है क्योंकि वे स्वयं कहते हैं कि इस उदाहरण में हमने इस न्याय का उपयोग किया है, वह, 'तदः से: ' - १ / ३ / ४५ सूत्र में लघुन्यासकार ने न्यास में इसी उदाहरण में इस न्याय का उपयोग बताया है, उसके अनुसार है। अन्यथा इस न्याय के बिना उपयोग ही, केवल 'पादार्था' पद द्वारा ही यहाँ 'सि' के लुक् का अभाव सिद्ध हो ही जाता है । वह इस प्रकार है:- 'तदः से: ' -१ / ३ / ४५ से 'सि' का लोप तब ही होता है कि यदि उसी लोप से पादपूर्ति होती हो । यहाँ 'सि' का लोप करने पर 'साहं तथापि' और न करने पर 'सोऽहं तथापि' दोनों पद्धतियों से पादपूर्ति होती है, अतः 'तदः से ::- १/३/४५ से 'सि' लोप अनिवार्य नहीं है, तथापि लघुन्यासकार ने 'सि' लोप के निषेध करने के लिए इस उदाहरण में इस न्याय का उपयोग किया
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