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न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) शब्द में 'पर्युदास नञ्' है और 'पर्युदासः सदृग्ग्राही' उक्ति के आधार पर यहाँ 'अनुदकात्' का अर्थ 'उदक' शब्द से भिन्न तथा 'उदक' सदृश अर्थात् 'द्रव्यवाची नाम' होता है, अतः उदक को छोड़कर अन्य द्रव्यवाची 'नाम' से पर आये हुए 'स्पृश्' धातु से इसी सूत्र द्वारा 'क्विप्' प्रत्यय होगा और बृहद्वृत्ति में भी ऐसा ही कहा है' । अतः पर्युदास नञ् के बल पर, यह निवारण होता है अतः इस न्याय का यहाँ कोई उपयोग नहीं है, ऐसा सिद्ध होता है। यदि शास्त्रकार आचार्यश्री को वह इष्ट होता तो अवश्य इस न्याय का उपयोग किया होता । अन्य उपाय होने से, यह नया न्याय नहीं बनाना चाहिए । कदाचित् अन्यत्र क्वचित् इस न्याय का उपयोग हो सकता है किन्तु प्रस्तुत उदाहरण में इस न्याय की प्रवृत्ति उचित नहीं लगती है । और अन्य प्रयोग में 'नाम' से उपसर्ग का ग्रहण होता ही है। - यह न्याय अन्य किसी भी व्याकरण में नहीं है।
॥१२७॥ सामान्यातिदेशे विशेषस्य नातिदेशः ॥५॥ सामान्य का अतिदेश हुआ हो तो विशेष का अतिदेश नहीं होता है। .
अन्यत्र प्रसिद्ध अर्थ का अन्यत्र कथन करना अतिदेश कहा जाता है या किसी एक पदार्थ के धर्म या लक्षण का अन्य में आरोपण करना अतिदेश कहा जाता है । 'निर्विशेषं न सामान्यम्' वचनानुसार, वस्तुतः विशेष का सामान्य में समावेश हो जाता है । अतः ऐसा माना जाता है कि सामान्य का अतिदेश होता है तब विशेष का भी अतिदेश हो ही जाता है किन्तु ऐसा नहीं होता है। ऐसा बताने के लिए यह न्याय है।
उदा. 'भूतवच्चाशंस्ये वा' ५/४/२ सूत्र में 'भूतवत्' स्वरूप सामान्य से अतिदेश करने से 'अनद्यतनत्व' या 'परोक्षत्व' विशिष्ट भूतकाल का अतिदेश नहीं होता है। अत एव 'उपाध्यायश्चेदागमत् एते तर्कमध्यगीष्महि' इत्यादि प्रयोग में दोनों स्थान पर 'भूतवच्चा' -५/४/२ सूत्र से भूतकाल मात्र लक्षणयुक्तः अद्यतनी के प्रत्यय हुए हैं। किन्तु अनद्यतनत्व विशिष्ट 'हस्तनी' या परोक्षत्व विशिष्ट 'परोक्षा' के प्रत्यय नहीं हुए हैं ।
यहाँ 'भूतत्व' सामान्य धर्म है, जबकि अनद्यतनत्वविशिष्ट भूतत्व और परोक्षत्वविशिष्ट भूतत्व, कहने पर 'अनद्यतनत्व' और 'परोक्षत्व', दोनों विशेषधर्म बनते हैं । सामान्य धर्म सदैव व्यापक होता है जबकि विशेषधर्म व्याप्य होता है ।
यह न्याय लोकव्यवहारसिद्ध है क्योंकि लोक में भी जब मनुष्य में 'पशुत्व' स्वरूप सामान्य का अतिदेश होता है तब वहाँ उसके 'गोत्व, शृङ्गीत्व' आदि स्वरूप विशेष धर्मका अतिदेश नहीं होता है।
इस न्याय का दूसरा अर्थ इस प्रकार भी हो सकता है कि सामान्य का अतिदेश होता है तब विशेष का अतिदेश नहीं होता है किन्तु विशेष (धर्म) का अतिदेश होता हे तब सामान्य (धर्म)
का अतिदेश अवश्य होता है। उदा. ब्राह्मण के कठत्व आदि रूप विशेष धर्म का अन्य किसी पुरुष में अतिदेश किया जाता है तो उसके साथ साथ 'ब्राह्मणत्व' रूप सामान्य धर्म का अवश्य अतिदेश ★ 'अनुदक' इति पर्युदासाश्रयणादुदकसदृशमनुपसर्ग नाम गृह्यते, तेनेह न भवति उपस्पृशति ।
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