Book Title: Nyayasangrah
Author(s): Hemhans Gani, Nandighoshvijay
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 385
________________ ३३२ न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण ) संक्षेप में दो शब्दों के सम्बन्ध की विवक्षा को स्वीकृति देनेवाला यह न्याय है । यह न्याय अन्य किसी भी परिभाषासंग्रह में नहीं है । ॥ १२५ ॥ येन विना यन्न भवति तत्तस्यानिमित्तस्यापि निमित्तम् ॥ ३॥ जिसके बिना, जो कार्य होता ही नहीं है, वह उसी कार्य का निमित्त नहीं होने पर भी, उसका उसी कार्य के निमित्त के स्वरूप में व्यपदेश किया जाता है । जो, जिसके साथ सहचरित ही देखने को मिलता है, किन्तु अकेला देखने को नहीं मिलता है, वह उसी कार्य के लिए निर्निमित्त के रूप में प्रसिद्ध होने पर भी, उसको निमित्त के रूप में माना जाता है । अतः कदाचित् उसके अभाव में 'निमित्तापाये नैमित्तिकस्याप्यपायः ' न्याय से नैमित्तिक रूप कार्य की भी निवृत्ति होती है । उदा. 'कृतण्' धातु का 'कीर्त्तृ' आदेश 'णिच्' के साथ ही देखने को मिलता है । अतः 'कृत्' धातु का 'कृतः कीर्त्तिः ' ४/४/ १२२ से होनेवाला 'कीर्त्तृ' आदेश निर्निमित्त होने पर भी, 'णिच्' का उसके निमित्त के रूप में व्यपदेश होता है । अतः 'कृतति' प्रयोग में 'अनित्यो णिच्चुरादीनाम्' न्याय से 'णिच्' अनित्य होने से 'णिच्' के अभाव में 'कीर्त्ती' आदेश भी नहीं होता है । यहाँ एक शंका और भी हो सकती है कि यदि 'कृतण्' का 'कीर्त्ति' आदेश किसी भी निमित्त बिना ही करना है, और होता हो तो धातुपाठ में ही 'कृतण्' के स्थान पर 'कीर्त्तण्' उपदेश अर्थात् पाठ करना चाहिए । इसके बारे में चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि यदि ऐसा होता तो 'कृतण' में ऋकारोपदेश' अचीकृतद्' इत्यादि प्रयोग में 'ऋकार' के श्रवण के लिए है ऐसा जो बृहद्वृत्ति में बताया गया है, वह उचित नहीं है क्योंकि उन्होंने बताया है, उसी प्रकार से 'अचीकृतद्' इत्यादि में 'ऋकार' श्रवणमात्र ही इसका फल है। जबकि तुम्हारे ( श्रीहेमहंसगणि के) वचन अनुसार 'कृतति' प्रयोग में 'ऋकार श्रवण भी 'कृतण्' पाठ का ही एक अन्य फल है । अतः दोनों विधान में परस्पर स्पष्ट विरोध आता है । किन्तु यह बात उचित नहीं है । यहाँ शास्त्रकार / सूत्रकार का आशय इस प्रकार है । 'कृत ऋकारोपदेशोऽचीकृतद् इत्यत्र ऋकारश्रवणार्थः ' वृत्तिकार / शास्त्रकार का यह विधान समाधान ग्रन्थस्वरूप है । यहाँ 'कृतण' पाठ क्यों किया है, इसकी चर्चा करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि 'कृतण्' के स्थान पर 'कीर्त्तण्' पाठ किया होता तो 'कीर्तयति' इत्यादि प्रयोग की सिद्धि बिना सूत्रारम्भ ही हो सकती है, तो 'कृतण्' पाठ करने की क्या जरूरत ? उसका समाधान देते हुए वे कहते हैं कि यदि 'कीर्त्तण्' किया हो तो केवल 'अचिकीर्तत्' एक ही रूप होगा और 'अचीकृतद्' रूप नहीं होगा । जबकि 'कृतण्' पाठ करने से 'अचीकृतद्' और 'अचिकीर्तत्' दोनों रूप सिद्ध हो सकते हैं। यहाँ श्रीलावण्यसूरिजी पूर्वपक्ष स्थापन करते हुए कहते हैं कि कुछेक 'ऋकारश्रवणार्थ:' पद का अर्थ 'ऋकारश्रवणमात्रफलम् ' ऐसा करते हैं और दोनों के बीच विरोध बताते हैं, वह उचित नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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