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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) 'पृषोदरादित्वात्', 'अ' का लोप होकर 'सृगालः' अथवा 'शृङ्गं न लाति', विग्रह करके 'पृषोदरादित्वात्' सिद्धि होती है। इस प्रकार 'मयूर' इत्यादि शब्दों की भिन्न भिन्न प्रकार से व्युत्पत्ति होती है, और यह बात प्रत्येक वैयाकरण को स्वीकार्य/सम्मत है।
वस्तुतः सभी नाम/प्रातिपदिक किसी न किसी पदार्थ अर्थात् द्रव्य, गुण, कर्म इत्यादि में किसी एक का वाचक होता ही है, और यह परम्परा से रूढ ही है, तथापि वैयाकरण उसकी समझ देने के लिए या उसी शब्द को साधुत्व प्राप्त कराने के लिए प्रकृति-प्रत्यय इत्यादि की कल्पना करके इसकी सिद्धि करते हैं । अतः भिन्न भिन्न वैयाकरण भिन्न भिन्न पद्धति से इन शब्दों की व्युत्पत्ति करते हैं, अतः वह अव्यवस्थित अर्थात् अनिश्चित होती है।
॥१०३॥ उणादयोऽव्युत्पन्नानि नामानि ॥४६॥ उण् इत्यादि प्रत्यय से सिद्ध नाम/शब्दों को अव्युत्पन्न ( प्रकृति-प्रत्यय विभाग रहित) माने जाते हैं।
यहाँ 'उणादि' शब्द से 'उणादि' प्रत्ययान्त का ग्रहण किया है । 'प्रत्ययः प्रकृत्यादेः' ७/ ४/११५ परिभाषा सूत्र से प्रकृति, जिसके आदि में है ऐसे उणादि प्रत्यय लेने चाहिए अथवा उणादि प्रत्यय अवयव है और उणादि प्रत्ययान्त शब्द अवयवी है । अवयव-अवयवी में अभेद उपचार करने पर भी 'उणादयः' शब्द से उणादि प्रत्ययान्त शब्दों का ग्रहण होता है । वही 'उणादि' सूत्र 'कृवापाजि'- (उणा-१) से लेकर १००५ सूत्र तक उसका कथन किया गया है। इन सूत्रों द्वारा जिन शब्द की व्युत्पत्ति होती है और प्रकृति-प्रत्यय विभाग की जो कल्पना की जाती है, वही केवल वर्ण की आनुपूर्वी का ज्ञान कराने के लिए ही है, किन्तु 'कर्ता' इत्यादि क्रियावाचक शब्द की तरह अर्थानुसारी व्युत्पत्ति या प्रकृति-प्रत्यय इत्यादि की कल्पना नहीं है। अतः तत्त्वतः ये 'नाम' अव्युत्पन्न हैं क्योंकि ये शब्द रूढ कहे जाते होने से अन्वर्थक व्युत्पत्ति करना संभव नहीं है।
उदा. 'पटिवीभ्याम्'- (उणा. ५७९) से 'वीक्' धातु से 'डिस्' प्रत्यय करने पर विसम्' शब्द होता है । यहाँ इस प्रकार 'विसम्' की व्युत्पत्ति करने पर भी, तत्त्वतः अव्युत्पन्न होने से 'स' में कृतत्व का अभाव होने से उसी 'स' का 'ष' नहीं होगा।
इस न्याय का ज्ञापक 'अतः कृ-कमि'- २/३/५ सूत्र में, कम् धातु का ग्रहण करने से उणादि सूत्र 'मावावद्यमि'- ( उणा-५६४) से 'कम्' धातु से 'स' प्रत्यय होकर निष्पन्न हुए 'कंस' शब्द का भी ग्रहण प्राप्त है, तथापि 'कंस' शब्द का पृथग्ग्रहण किया है, वह है। अतः कृ-कमि२/३/५ सूत्र में 'कृ' और 'कम्' दोनों धातु का निर्देश किया है किन्तु प्रत्ययरहित सिर्फ 'कृ' और 'कम्' धातु का ‘अस्' अन्तवाले 'नाम' के साथ समास होने की कोई संभावना नहीं है । अतः ये धातु कृदादि प्रत्ययान्त ही लिये जायेंगे, ऐसा कहा है। अतः 'अयस्कारः, अयस्कामः' इत्यादि में 'र' का 'स' होता है । यदि यह न्याय न होता तो 'कंस' शब्द भी कम् धातु से 'स' प्रत्यय होकर बना है, अतः 'कम्' के ग्रहण से उसका ग्रहण हो जाता है । अतः 'कंस' शब्द का पुनः ग्रहण किया,
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