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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १०३)
२९३ वह व्यर्थ होकर इस न्याय का ज्ञापन करता है, और यह न्याय ज्ञापित हो जाने के बाद 'कंस' शब्द उणादि प्रत्ययान्त होने से, उसे अव्युत्पन्न मानकर, 'कम्' धातु से निष्पन्न न होने से, उसका पृथग्ग्रहण चरितार्थ होगा।
यह न्याय अनित्य होने से, क्वचित् उणादि प्रत्ययान्त शब्दों को व्युत्पन्न भी माने जाते हैं। अतः 'वप्' धातु से उणादि के 'रुद्यर्ति-' (उणा-९९७ ) से उस् प्रत्यय होकर बने ‘वपुस्' शब्द के 'वपुषा' इत्यादि रूपों में 'स' को कृत मानकर, उसका 'नाम्यन्तस्था'-२/३/१५ से 'ष' किया गया है।
इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापक तृस्वसृ'-१/४/३८ सूत्र में उणादिप्रत्ययान्त 'नसृ' इत्यादि शब्दों के ग्रहण को नियमार्थ, श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने बताया है, वह है। श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने उणादि प्रत्ययान्त शब्दों में व्युत्पत्ति पक्ष और अव्युत्पत्तिपक्ष दोनों मान्य रखें हैं । अतः अव्युत्पत्तिपक्ष इसी न्याय को अनुकूल है, और वास्तव में अव्युत्पत्तिपक्षमूलक ही यह न्याय है । अत: जब/जहाँ व्युत्पत्ति पक्ष का आश्रय लिया जाता है तब/वहाँ इस न्याय को अनित्य मानना चाहिए । 'नप्तृ' इत्यादि के ग्रहण से फलित/सिद्ध होनेवाला नियम इस प्रकार है -: व्युत्पत्तिपक्ष में 'तृ' के ग्रहण से ही नप्त इत्यादि का ग्रहण सिद्ध हो जाता है तथापि उनका पुन: ग्रहण किया, उससे ज्ञापित होता है कि उणादि प्रत्ययान्त तृ अन्तवाले नाम में से केवल 'नप्तृ' इत्यादि के अन्त्य ऋकार का 'आर्' होता है किन्तु अन्य 'तृ' अन्तवाले नाम के अन्त्य 'ऋ' का 'आर्' नहीं होता है । अत: 'पितरौ, मातरौ' इत्यादि में 'आर्' नहीं होगा। यदि यह न्याय नित्य होता तो, उणादि 'नम्तृ' इत्यादि अव्युत्पन्न होने से 'तृ' के ग्रहण से, उसका ग्रहण होने की कोई संभावना ही पैदा नहीं होती है, तो नियमार्थत्व का कथन भी संगत नहीं होता है । अतः व्युत्पत्तिपक्ष में इस न्याय का आश्रय नहीं करना चाहिए, यही अनित्यता का तात्पर्य है।
केवल उणादि प्रत्ययान्त नाम ही अव्युत्पन्न होते हैं, ऐसा नहीं है । क्वचित् निपातित 'नाम' में प्रकृति-प्रत्यय विभाग का स्वीकार नहीं किया जाता है । अतः उणादि के उपलक्षण से दूसरे भी 'नाम' अव्युत्पन्न माने जाते हैं । ( उदा. षष्टि) अतः यहाँ 'सङ्ख्याडतेश्चाशत्तिष्टेः कः' ६/४/१३० सूत्र में 'ष्टि' का वर्जन सार्थक होता है और ष्टि (ष्ट्यन्त ) का वर्जन 'षष्टि' शब्द के लिए किया गया है। षष्टि' शब्द का 'षड् दशतो मानमस्या:' विग्रह करके, 'विंशत्यादयः' ६/४/१७३ सूत्र से ति प्रत्ययान्त निपातन किया है । इस प्रकार 'षष्टि भी 'ति' प्रत्ययान्त होने से 'ति' के वर्जन से 'ष्टि' अन्तवाले 'षष्टि' का भी वर्जन सिद्ध ही था, तथापि उसका वर्जन किया, वह व्यर्थ होकर बताता है कि 'षष्टि' में अव्युत्पत्तिपक्ष का स्वीकार किया गया है।
इस न्याय के 'उणादयः' और 'अव्युत्पन्नानि' शब्दगत परस्पर विरोधाभास के बारे में श्रीलावण्यसूरिजी हंसीयुक्त/विनोदयुक्त आशंका करते हैं । इस न्याय में एक ओर ऐसा कहते हैं कि 'उणादयः' शब्द से उणादि प्रत्ययान्त शब्द ग्रहण करने चाहिए अर्थात् उनमें प्रकृति-प्रत्यय विभाग
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