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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) आदि में स्थित 'गडदब' को चतुर्थत्व की प्राप्ति होती है ।
यहाँ किसी को शंका हो सकती है कि 'दध् ध्वस्' में प्रथम 'ध्' का 'तृतीयस्तृतीयचतुर्थे'१/३/४९ से न होने के बाद 'दध्' चतुर्थान्त कैसे माना जायेगा? अर्थात् चतुर्थान्त नहीं माना जायेगा
और तो आदि 'द्' का 'ध्' कैसे होगा ? उसका उत्तर देते हुए श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि 'तृतीयस्तृतीयचतुर्थे'- १/३/४९ सूत्र में 'अनु' का अधिकार होने से, जब तक आदि 'द्' का 'ध्' नहीं होगा तब तक द्वित्वभूत 'ध्' में से प्रथम 'ध्' का 'द' नहीं होगा।
यदि यह न्याय न होता तो 'ध्व' को किसी भी प्रकार से प्रत्ययत्व की प्राप्ति ही नहीं थी, तो 'दद्ध्वः ' इत्यादि प्रयोग में, वैसे 'ध्व' के कारण, आदि 'द' का चतुर्थत्व का प्रसंग ही पैदा नहीं होता था, तो यहाँ 'प्रत्यये' शब्द के प्रयोग से किसी भी न्याय की अपेक्षारहित ही प्रत्यय लेना, ऐसा ज्ञापन क्यों करें? केवल इस न्याय के कारण ही 'ददध्वः इत्यादि प्रयोग में 'ध्व' में प्रत्ययत्व आता होने से, ऐसे प्रयोग में आदि 'द' का चतुर्थत्व होने का प्रसंग उपस्थित होता है, ऐसा जानकर, उसका निषेध करने के लिए 'गडदबादेः'- २/१/७७ सूत्र में 'प्रत्यये' का ग्रहण किया है और इस प्रकार प्रस्तुत ज्ञप्तिविधान सफल है।
यह न्याय अनित्य है, अत: 'राजानमाख्यद् अरराजत्' प्रयोग में 'राजन्' के अन्त्यस्वरादि समुदाय रूप 'अन्' का लोप-स्वरव्यञ्जन-उभय के स्थान में हुआ है तथापि वह स्वर के आदेश रूप में ही उसका व्यपदेश किया है। किन्तु व्यञ्जन के आदेश के रूप में व्यपदेश नहीं किया है । यदि व्यञ्जन के आदेश के रूप में व्यपदेश किया होता तो 'राज् णि' धातु 'असमानलोपि' हो जाने से सन्वद्भाव इत्यादि होता तो 'अरीरजत्' जैसा अनिष्ट रूप होता, किन्तु अन्-लोप को व्यंजन का आदेश माना नहीं है।
इस न्याय के उदाहरण के बारे में विचार करने पर लगता है कि श्रीहेमहंसगणि ने कहा कि 'प्रैष्यः' रूप होता है और 'प्रस्यैषैष्योढोढ्यूहे स्वरेण' १/२/१४ सूत्र, 'ओमाङि' १/२/१८ और 'उपसर्गस्या'- १/२/१९ का बाध करता है । वह उचित प्रतीत नहीं होता है । बृहद्वृत्ति में शास्त्रकार आचार्यश्री इसके बारे में कहते हैं कि 'प्रेषः' और 'प्रेष्यः' रूप कैसे होते हैं ? तो वे कहते हैं कि 'प्र' के बाद 'ईषः' या 'ईष्यः' आने पर 'प्रेषः' प्रेष्यः' रूप होते हैं, इसके अलावा 'आ + ईष्यः = एष्यः' रूप 'प्र' के बाद में आया हो तो भी 'ओमाङि' १/२/१८ से 'अ' वर्ण का लोप होकर 'प्रेष्यः' रूप ही होता है और यस्मिन् प्राप्ते यो विधिरारभ्यते......' न्याय से केवल 'उपसर्गस्यानिणे'- १/२/ १९ का ही बाध होता है, किन्तु 'ओमाङि' १/२/१८ का बाध नहीं होता है । अतः 'प्रेष्यः' रूप ही होता है।
- इसी बात का संदर्भ देते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि जब आ + ईष्यः = एष्यः' होगा, तब, यदि उसे धातु का आदेश मानेंगे तो, 'उपसर्गस्या- १/२/१९ का, 'प्रस्यैषैष्योढोढ्यूहे'- १/२/ १४ से बाध होता है, किन्तु 'ओमाङि' १/२/१८ का बाध नहीं होता है । अतः 'प्रेष्यः' रूप ही होगा, किन्तु 'प्रैष्यः' रूप नहीं होगा।
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