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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) जहाँ उत्सर्ग-स्वरूप 'त्यादि' विभक्ति का विषय हो, वहाँ यदि अपवाद-स्वरूप त्यादि विभक्ति होनेवाली हो तो, उसी अपवाद-स्वरूप 'त्यादि' विभक्ति के स्थान में औत्सर्गिक 'त्यादि' विभक्ति विकल्प से नहीं होती है।
'असरूपोऽपवादे वोत्सर्गः प्राक् क्ते:'५/१/१६ सूत्र से असरूपविधि की अनुज्ञा दी गई है और इसी सूत्र की प्रवृत्ति 'स्त्रियां क्तिः' ५/३/९१ सूत्र तक होती है । और वहाँ तक, कुछेक सूत्र में अपवाद स्वरूप त्यादि विभक्ति का विधान है, तो उसी विषय में यह असरूपविधि हो सके या नहीं? ऐसी आशंका का समाधान करने के लिए यह न्याय है। यह न्याय त्यादि सम्बन्धित असरूपविधि का निषेध करता है।
उदा. 'स्मरसि चैत्रः ! कश्मीरेषु वत्स्यामः' इत्यादि प्रयोग में 'अयदि स्मृत्यर्थे भविष्यन्ती' ५/ २/९ से 'भविष्यन्ती' होती है, वह अपवाद है, उसी विषय में 'अनद्यतने हस्तनी' ५/२/७ से होनेवाली औत्सर्गिक त्यादि (शस्तनी), 'असरूपोऽपवादे-'५/१/१६ से प्राप्त है। तथापि नहीं होगी। इस न्याय में 'अन्योन्य' शब्द रखा है, अतः त्यादिविभक्ति में ही परस्पर असरूपविधि का निषेध होता है किन्तु उसी अर्थ में होनेवाले 'कृत्प्रत्यय' के साथ असरूपविधि का निषेध नहीं होता है। अतः उसी अर्थ में कृत्प्रत्यय होकर 'कृदन्त' भी बनते हैं। उदा. 'उपशुश्राव' इत्यादि में 'श्रुसदवस्भ्यः परोक्षा वा' ५/२/१ से परोक्षा विभक्ति होती है और उसी परीक्षा के विषय में उत्सर्ग-स्वरूप 'क्त' आदि प्रत्यय होकर 'उपश्रुतः, उपश्रुतवान्' इत्यादि प्रयोग होंगे।
इस न्याय का ज्ञापक 'श्रुसदवस्भ्यः परोक्षा वा' ५/२/१ सूत्रगत 'वा' शब्द है । उसी 'वा' शब्द से विकल्प के पक्ष में जब परोक्षा नहीं होगी, तब यथायोग्य 'अद्यतनी' या 'ह्यस्तनी' के प्रत्यय करने के लिए है । यदि यह न्याय न होता तो 'असरूपोऽपवादे-'५/१/१६ से यथायोग्य औत्सर्गिक अद्यतनी या शस्तनी होनेवाली ही है, अतः उसके लिए सूत्र में 'वा' शब्द रखने की कोई आवश्यकता नहीं थी, तथापि 'वा' शब्द रखा, उससे ज्ञापन होता है कि इस न्याय से 'श्रृसदवस्भ्यः ' ५/२/१ से होनेवाली अपवादस्वरूप परोक्षा से औत्सर्गिक अद्यतनी और ह्यस्तनी का अवश्य बाध होगा । अतः उसके विकल्प में यथायोग्य अद्यतनी या शस्तनी करने के लिए 'श्रुसदवस्भ्यः परोक्षा वा' ५/२/१ सूत्र में 'वा' शब्द रखा है।
यह न्याय अनित्य है । यह न्याय और उसके पूर्व का न्याय 'असरूपोऽपवादे वोत्सर्गः प्राक क्तेः' ५/१/१६ के अपवाद हैं।
यहाँ किसी को शंका हो सकती है कि पूर्व न्याय में ही 'त्यादिषु च' शब्द रखकर, इस न्याय का कथन कर दिया होता तो इसके लिए पृथक् न्याय बनाने की आवश्यकता नहीं रह पाती । उसका प्रत्युत्तर इस प्रकार है -: पूर्व न्याय शीलादि अर्थ में होनेवाले अपवादरूप प्रत्यय के विषय में, शीलादि अर्थ में होनेवाले औत्सर्गिक 'तृन्' इत्यादि प्रत्यय और शीलादि अर्थ को छोड़कर, सामान्य कर्ता इत्यादि अर्थ में होनेवाले ‘णक, तृच्' इत्यादि प्रत्यय के साथ, असरूपविधि का निषेध करता है, जबकि यह न्याय केवल 'त्यादि' विभक्ति के प्रत्यय में ही परस्पर अपवाद स्वरूप 'त्यादि' प्रत्यय के विषय में 'असरूपोऽपवादे'- ५/१/१६ से होनेवाले औत्सर्गिक त्यादि प्रत्यय का ही निषेध करता
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