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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ११८)
३२१ वाक्यार्थ से आया हुआ 'चकार' वाक्यार्थ का समुच्चय करता है । उदा. 'तस्य व्याख्याने च ग्रन्थात्' ६/३/१४२ स्थित 'तस्य व्याख्याने' से पर आया हुआ 'चकार' पूर्व के 'भवे' ६/३/ १२३ स्थित 'भवे' और उसके भी पूर्व के 'तत्र कृत-लब्ध-क्रीत'- ६/३/९४ स्थित 'तत्र', दोनों मिलकर बने हुए 'तत्र भवे ' वाक्यार्थ का समुच्चय करता है।
यहाँ अर्थ और वाक्यार्थ का भेद बताते हुए श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि अर्थ अर्थात् एक ही पद का अर्थ और वाक्यार्थ अर्थात् दो या दो से अधिक पदों के अर्थ का समूह/समुदाय ।
इस न्याय का ज्ञापन 'प्रतेश्च वधे' ४/४/९४ इत्यादि सूत्र में विजातीय पदों के समुच्चय की निवृत्ति के लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं किया है उससे होता है । वह इस प्रकार -'प्रतेश्च वधे' ४/४/९४ में 'च' का केवल समुच्चय अर्थ ही है । और 'किरो लवने '४/४/९३में समुच्चय दो प्रकार के हैं। एक सजातीय और दसरा विजातीय । उसमें 'उप' उपसर्ग सजातीय है और वही डन है, जब की विजातीय 'लवन'आदि इष्ट नहीं है । अतः विजातीय का व्यवच्छेद या निषेध करने के लिए कोई भी प्रयत्न अवश्य करना चाहिए किन्तु ऐसा कोई प्रयत्न नहीं किया, वह इस न्याय का ज्ञापक है।
इस न्याय की अनित्यता प्रतीत नहीं होती है । 'समुच्चिनोति' शब्द से समुच्चयार्थक 'च कार' का ही इस प्रकार नियमन होता है । अनुकर्षणार्थक 'चकार' विजातीय का भी अनुकर्षण करता है और वैसा ही अगले 'चानुकृष्टं नानुवर्तते ॥१६२॥' न्याय में उदाहरण दिया गया है।
इस न्याय के बारे में ज्यादा विचार करने पर, कुछ स्पष्टताएँ करनी आवश्यक लगती है। यहाँ श्रीहेमहंसगणि ने 'च' के मुख्य रूप से दो अर्थ या प्रकार बताये हैं : १.समुच्चय २. अनुकर्षण । जबकि आचार्य श्रीहेमचंद्रसूरिजी ने 'चार्थे द्वन्द्वः'-३/१/११७ सूत्र की बृहद्वृत्ति में, महाभाष्य के अनुसार 'च' के चार अर्थ बताये हैं : १. समुच्चय २. अन्वाचय ३. इतरेतर ४. समाहार । इसके बारे में वे कहते हैं कि 'तत्रैकमर्थं प्रति द्वयादीनां क्रिया-कारक-द्रव्य -गुणानां तुल्यबलानामविरोधिनामनियत -क्रमयोगपद्यानामात्मरूपभेदेन चीयमानता समुच्चयः ।' और यही बात को समझाते हुए लघु न्यासकार कहते हैं कि एक ही कारक में अनेक क्रियाओं को, एक ही क्रिया में अनेक कारकों को, एक ही द्रव्य में अनेक कारकों को, एक ही कारक में अनेक द्रव्यों को और एक ही धर्म में अनेक धर्मों और एक ही धर्म में अनेक धर्मिओं को रखना समुच्चय कहा जाता है।
उपर्युक्त चार अर्थ में से एक भी अर्थ अनुकर्षणवाचि नहीं है । अतः अनुकर्षण को पाँचवाँ अर्थ मानना पड़ेगा । वस्तुतः शास्त्रकार को यदि यह पाँचवाँ अर्थ मान्य/स्वीकृत होता तो वह भी बताया होता, किन्तु शास्त्रकार ने वही अर्थ नहीं बताया है, अतः यही अनुकर्षण अर्थ का उपर्युक्त चार अर्थ में से ही एक अर्थ में समावेश करना चाहिए और शास्त्रकार ने समुच्चय अर्थवाचि 'च कार' का सूत्र में कहाँ कैसे प्रयोग होता है वह भी नहीं बताया है । अनुकर्षण का अर्थ है पूर्व के सूत्र में से किसी पद का 'चकार' से ग्रहण करना, वैसे समुच्चय का अर्थ भी, पूर्व के सूत्र में से किसी पद का 'चकार' से ग्रहण करना है।
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