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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) साथ 'शक्ताह' का 'यथासङ्ख्यम्' होने की कोई संभावना नहीं थी किन्तु यह न्याय अनित्य है, अतः कदाचित् कोई ऐसी प्रवृत्ति करेगा, ऐसी आशंका से 'यथासङ्ख्यम्' की निवृत्ति करने के लिए बहुवचन रखा है । यहाँ ऐसी शंका नहीं करना कि 'कृत्य' प्रत्यय बहुत से होने के कारण बहुवचन रखा है । क्योंकि 'प्रैषानुज्ञाऽवसरे कृत्यपञ्चम्यौ' ५/४/२९ सूत्र में 'कृत्य' शब्द को एकवचन में ही रखा है और ‘कृत्य' तथा 'पञ्चमी' का इतरेतर द्वन्द्व समास करके द्विवचन रखा है । अन्यथा 'कृत्यपञ्चम्यौ' के स्थान पर कृत्यपञ्चम्याः' किया होता ओर कृत्यत्व' जाति की विवक्षा से एकवचन ही रखना उपयुक्त है।
इस न्याय के बारे में श्रीलावण्यसूरिजी इस प्रकार चर्चा करते हैं :- 'यथासङ्ख्यमनुदेश: समानाम्' न्याय से समान संख्यावाले उद्देशी के साथ समान संख्यावाले अनुद्देशी का अनुक्रम से सम्बन्ध सूचित होता है । इसमें उद्देशी ओर अनुद्देशी दो-दो प्रकार के होते हैं । कुछेक पूर्णतः सूत्र में बता दिये हों या उसकी संख्या का निर्देश किया गया हो और कुछेक का पूर्व सूत्र से 'चकार' द्वारा अनुकर्षण किया हो । पूर्व न्याय से दोनों में 'यथासङ्ख्यम्' की प्रवृत्ति होने की संभावना थी, किन्तु यह न्याय 'चकार' से अनुकृष्ट के साथ 'यथासङ्ख्यम्' की प्रवृति का निषेध करता है।
लघुन्यासकार इस न्याय को थोड़ी सी भिन्न पद्धति से बताते हैं । वे कहते हैं कि राष्ट्रक्षत्रियात् सरूपाद् राजाऽपत्ये दिरञ्' ६/१/११४ सूत्र में 'अपत्य' शब्द का ग्रहण किया है, उसके द्वारा 'समुच्चीयमानेन न यथासङ्ख्यम्' न्याय का ज्ञापन होता है । वह इस प्रकार- राष्ट्रक्षत्रियात्' -६/ १/११४ सूत्र में 'राजाऽपत्ये' के स्थान पर 'राजनि च' कहा होता, तो भी 'यथासङ्ख्यम्' होता क्यों कि 'चकार' से 'अपत्य' अर्थ का 'समुच्चय' या 'अनुकर्षण' होने से 'राष्ट्रवाचि' शब्द से 'राजा' अर्थ में और क्षत्रियवाचि' शब्द से 'अपत्य' अर्थ में प्रत्यय करने के लिए 'यथासङ्ख्यम्' की प्रवृत्ति हो सकती थी तथापि 'यथासङ्ख्यम्' के लिए सूत्र में 'अपत्य' शब्द रखा, उससे सूचित होता है कि 'चकार' से समुच्चीयमान के साथ 'यथासङ्ख्यम्' की प्रवृत्ति आचार्यश्री को इष्ट नहीं है।
और 'शक्तार्हे कृत्याश्च' ५/४/३५ सूत्र की वृत्ति के "बहुवचनमिहोत्तरत्र च यथासङ्ख्यं निवृत्त्यर्थम्" शब्द की व्याख्या करते हुए न्यासकार कहते हैं कि यदि 'राष्ट्रक्षत्रियात्-'६/१/११४ सूत्रगत 'अपत्य' शब्द से 'समुच्चीयमानेन न यथासङख्यम्' न्याय का ज्ञापन होने के बाद ‘कृत्याश्च' का बहुवचन व्यर्थ होता है । वह व्यर्थ होकर ज्ञापन करता है कि ज्ञापक से ज्ञापित विधि अनित्य होती है अर्थात् 'अपत्य' शब्द से ज्ञापित यह 'समुच्चीयमानेन न यथासङ्ख्यम्' न्याय भी अनित्य है।
इस चर्चा का संक्षिप्त सार/तात्पर्य यह है कि न्यायसङ्ग्रहकार श्रीहेमहंसगणि द्वारा बताया हुआ 'यत्नान्तराकरणम्' ज्ञापक उचित नहीं है किन्तु 'राष्ट्र-क्षत्रियात्'- ६/१/११४ सूत्रगत 'अपत्य ग्रहण' ही ज्ञापक है।
दूसरी एक बात विशेष रूप से दिखायी पडती है कि लघुन्यासकार के मत में अनुकर्षण और समुच्चय दोनों एक ही हैं और इस प्रकार का स्वीकार करना उचित प्रतीत होता है।
यह न्याय अन्य किसी भी परिभाषासंग्रह में नहीं है।
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