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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ११७)
३१९ ॥ ११७॥ द्वौ नौ प्रकृतमर्थं गमयतः ॥६०॥ दो 'नञ्' प्रकृत अर्थ अर्थात् पूर्व के अर्थ को ही बताते हैं ।
'नौ' पद द्वारा अर्थप्रधान निर्देश किया गया होने से दो निषेध लेना, अर्थात् जहाँ दो निषेध प्रयुक्त हो, वहाँ उन्हीं दो निषेध से पूर्व जो अर्थ हो, उसे प्रकृत अर्थ कहा जाता है और वही अर्थ ही दो 'नञ्'/निषेध से दृढ़ीभूत होता है।
उदा. 'न नाम्येकस्वरात्'-३/२/९ सूत्रगत 'नञ्' विभक्ति के (प्रत्यय के) लुप् का निषेध करता है और उसी 'न' की अनुवृत्ति 'नेन्सिद्धस्थे' ३/२/२९ तक चली आती है । यहाँ पूर्व 'नञ्' और 'नेन्सिद्धस्थे'३/२/२९ का 'नञ्' -दोनों मिलकर विभक्ति के लुप् के निषेध का निषेध करता है, अर्थात् इसी सूत्र से विभक्ति के लुप् का ही विधान हुआ है।
इस न्याय का ज्ञापक 'नेन्सिद्धस्थे' ३/२/२९ सूत्रगत 'न' है । यहाँ 'न नाम्येकस्वरात्'. ३/ २/९ से विभक्ति के लुप् के निषेध बतानेवाले 'नञ्' की अनुवृत्ति चली आती है तथापि लुब्विधि बताने के लिए पुन: 'नञ्' का ग्रहण किया है । यदि इस द्वितीय 'न' से पूर्व 'न' का अर्थ ही दृढ होता तो लुप्विधि सूचित करने के लिए पूर्व 'नञ्' की अनुवृत्ति होने पर भी लुब्विधि सूचित करने के लिए पुनः 'नञ्' का ग्रहण क्यों किया जाय ? अर्थात् न किया जाय, तथापि पुनः 'नञ्' ग्रहण किया है, वह इस न्याय के अस्तित्व को सूचित करता है ।
'नमो नमस्ते सततं नमो नमः' इत्यादि प्रयोगों में 'नमः' की द्विरुक्ति 'नम:' के स्वार्थ को दृढ बनाती है । यहाँ 'असकृत्संभ्रमे' ७/४/७२ से द्वित्व हुआ है, अतः उसी तरह यदि 'न' का दो बार प्रयोग हुआ हो तो 'नञ्' के अर्थ को ही दृढ करता है या नहीं ? ऐसी आशंका दूर करने के लिए यह न्याय है।
यहाँ 'द्वि' शब्द से समसंख्या में प्रयुक्त अर्थात् २-४-६-८-१० इत्यादि जुक्त संख्या में प्रयुक्त ‘नञ्' लेना और वही प्रकृत विधि को ही बताता है।
इस न्याय को श्रीहेमहंसगणि ने अनित्य बताया है । उसके फलस्वरूप यदि कोई व्यक्ति सम्भ्रम से दो बार 'नञ्' का प्रयोग करें तो, उसका अर्थ निषेध ही होता है किन्तु प्रकृत विधि नहीं होता है । उदा. यदि मनुष्य भोजन कर रहा हो, और यदि उसे अनीप्सित चीज परोसी जाय तो, वही मनुष्य तुरंत/सहसा 'न, न' कहता है, तब वह 'नञ्' के अपने अर्थ को ही दृढ करता है।
आचार्य श्रीलावण्यसूरिजी ने इस न्याय को स्वभावसिद्ध बताया है । उन्होंने इस न्याय का कोई ज्ञापक बताया नहीं है और अनित्य भी नहीं बताया है, क्योंकि संभ्रम से किया गया निषेध दो, तीन या चार, बख्त का होने पर भी प्रकृत अर्थ को नहीं बताता है । वही व्यवहारसिद्ध
इस न्याय की आवश्यकता के बारे में विचार करने पर लगता है कि पूर्व आये हुए न्याय "द्विर्बद्धं सुबद्धं भवति' न्याय से, दूसरी बार कही गई पूर्व की बात, उसी बात को ही दृढ बनाती
रही है।
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