________________
३१८
न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) ॥ ११६॥ परार्थे प्रयुज्यमानः शब्दो वतमन्तरेणाऽपि वदर्थं गमयति ॥ ५९॥
अन्य अर्थ में प्रयुक्त शब्द, बिना 'वत्' ही 'वत्' के अर्थ ( सादृश्य) को बताता है।
'वत्' का अर्थ सादृश्य है । अन्यथा कोई भी शब्द अपने अर्थ को छोड़कर अन्य अर्थ में प्रयुक्त होने पर पारस्परिक विरोध पैदा होता है । यही विरोध दूर करने के लिए यह न्याय है।
उदा. 'वाऽन्यतः पुमांष्टादौ स्वरे' १/४/६२ सूत्रगत 'पुमान्' का अर्थ 'पुंवद्' होता है । यहाँ परार्थ नपुंसक है, उसके लिए 'पुंस्' शब्द प्रयुक्त है, अत: वही शब्द नपुंसक होने पर भी, उससे 'पुंवत्' कार्य होता है जैसे 'मृदवे कुलाय' । यहाँ 'मृदु' शब्द नपुंसक होने पर भी 'पुंवत्' होने से नपुंसकत्व के कारण होनेवाला 'न' का आगम 'अनामस्वरे'-१/४/६४ से नहीं होगा।
___ 'वाऽन्यतः'- १/४/६२ सूत्रगत पुमान् निर्देश ही इस न्याय का ज्ञापक है । यदि यह न्याय न होता तो 'पुंवद्' निर्देश ही किया होता ।
यह न्याय अनित्य होने से ‘परतः स्त्री पुम्वत् स्त्र्येकार्थेऽनूङ' ३/२/४९ में 'पुम्वद्' निर्देश किया है। यदि यह न्याय नित्य होता तो 'पुमान्' कहा होता तो भी चल सकता था।
यह न्याय भी लोकसिद्ध ही है । उदा. 'अग्निर्माणवकः' इत्यादि प्रयोगों में प्रयुक्त 'अग्नि' शब्द स्वार्थ में नहीं हो सकता है, अतः लक्षणा से 'अग्नि' के साथ सादृश्य बताता है और ऐसे स्थान पर शब्द के स्वाभाविक/मूल अर्थ का बाध होने से, लक्ष्यार्थ की प्रतीति हो ही जाती है।
यह न्याय कहता है कि जहाँ 'वत्' प्रत्यय का प्रयोग न हुआ हो, तथापि यदि 'वत्' का अर्थ गम्यमान हो तो, उसका स्वीकार करना चाहिए, और इस प्रकार 'वदर्थ' का समर्थन किया है, अन्य कुछ नवीन विधान यह न्याय नहीं करता है और जहाँ स्पष्ट प्रतिपत्ति के लिए 'वत्' प्रयुक्त हो,वहाँ वह व्यर्थ नहीं है, अतः उससे इस न्याय की अनित्यता का ज्ञापन नहीं होता है, और 'परतः स्त्री पुम्वत्'- ३/२/४९ सूत्रगत 'पुम्वत्' प्रयोग से कोई दोष पैदा नहीं होता है तथापि श्रीहेमहंसगणि ने ऐसे प्रयोगों के लिए इस न्याय की अनित्यता बतायी इसका तात्पर्य ऊपर बताया वही है। उनका आशय/उद्देश्य यही है कि जहाँ कहीं भी प्रयोजनवश या रूढि से लक्षणा का प्रयोग किया हो वहाँ इस न्याय की प्रवृत्ति करना किन्तु सर्वत्र वाच्यार्थ को छोड़कर लक्षणा का ही ग्रहण करना, ऐसा कोई नियम नहीं है । अतः 'वत्' का प्रयोग हो ही नहीं सकता ऐसा मानकर शास्त्रकार आचार्यश्री द्वारा प्रयुक्त 'वत्' की व्यर्थता बताकर, इस न्याय की अनित्यता का प्रतिपादन न करना चाहिए, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी मानते हैं।
'वाऽन्यतः पुमांष्टादौ स्वरे' १/४/६२ सूत्र के बृहन्यास में, इस न्याय को सिद्ध ही माना गया है और इस प्रकार ही उसका ग्रहण किया गया है । इसके लिए सिद्धहेमबृहद्वृत्ति का शब्दमहार्णव न्यास देख लेना चाहिए । यह न्याय इसी स्वरूप में अन्य कहीं भी प्राप्त नहीं है।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org