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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ११३)
३१३ इस न्याय को 'स्पर्द्ध' ७/४/११९ परिभाषा का प्रपंच कहा है किन्तु वस्तुतः स्पर्धामूलक यही व्यवस्था, इस न्याय के बिना संभव ही नहीं है क्योंकि पर से नित्य, नित्य से अन्तरङ्ग, और अन्तरङ्ग से भी अपवाद बलवान् होता है । इसी परिस्थिति में सामान्य और विशेषभावमूलक, बाध्यबाधकभाव की आशंका पैदा होती है, उसे दूर करके परत्वविशिष्ट व्यवस्था का यहाँ आश्रय करना, ऐसा बताने के लिए इस न्याय की आवश्यकता है ही।
यह न्याय इस प्रकार कहीं भी बताया नहीं है केवल श्रीमानशर्मकृत बृहत्परिभाषा-टिप्पणि में 'क्तल्युटतुमुन्खलर्थेषु वाऽसरूपविधिर्नास्ति' न्याय पाया जाता है।
॥११३॥ यावत्संभवस्तावद्विधिः ॥५६॥ जब तक किसी सूत्र या न्याय की प्रवृत्ति करने/होने का संभव हो तब तक (एक से अधिकबार) उसी सूत्र या न्याय की प्रवृत्ति करना चाहिए या हो सकती है ऐसा यह न्याय कहता है/बताता है।
संभव की व्याख्या करते हुए कहा है कि जब तक किसी निमित्त या कारण से, सूत्र या न्याय की प्रवृत्ति का व्याघात न हो, तब तक उसी सूत्र या न्याय की प्रवृत्ति करना । अर्थात् किसी सूत्र या न्याय की प्रवृत्ति एक बार हो गई है ऐसा विचार करके पुन: उसकी प्रवृत्ति न हो, ऐसा विचार नहीं करना, किन्तु जब संभव का किसी भी निमित्त से व्याघात हो तब, उसी न्याय या सूत्र की प्रवृत्ति नहीं करना, ऐसा यह न्याय कहता है। सूत्र की प्रवृत्ति इस प्रकार है -:
उदा. 'त्वक' यहाँ 'अदीर्घाद्विरामैकव्यञ्जने' १/३/३२ से विरामनिमित्तक 'क्' का द्वित्व हो कर "त्वक्क्' रूप होगा, बाद में पुनः उसी सूत्र से, पर में आये हुए एकव्यञ्जननिमित्त रूप 'क्' के कारण पूर्व 'क' का द्वित्व होगा और 'त्वक्क्क् ' स्वरूप तीन 'क्' से युक्त रूप होगा, उसी में बीच के 'क्' का 'धुटो धुटि स्वे वा' १/३/४८ से लोप होगा । बाद में पुन: आद्य 'क्' का द्वित्व प्राप्त होने पर भी नहीं होगा क्योंकि ऐसा करने पर द्वित्व, लुप् और द्वित्व-स्वरूप प्रक्रिया होती ही रहेगी और क्रिया के अनुपरम के कारण रूप परिनिष्ठित नहीं हो सकेगा। इस प्रकार क्रिया के अनुपरम स्वरूप व्याघात के कारण 'अदीर्घाद्विरामैकव्यञ्जने' १/३/३२ सूत्र की प्रवृत्ति रुक जायेगी।
और 'यं विधिं प्रत्युपदेशोऽनर्थकः स विधिर्बाध्यते' न्याय से निरर्थक विधि का प्रतिषेध हुआ होने से भी उपर्युक्त द्वित्व और लुप् विधि पुनः पुनः नहीं होगी।
और 'चेतुमिच्छति चिकीषति' प्रयोग में, 'स्वरहनगमोः सनि धुटि' ४/१/१०४, 'द्विर्धातुः परोक्षा-'४/१/१ से पर होने से, द्वित्व होने के पूर्व ही दीर्घविधि हो जायेगी और बाद में द्वित्व होगा
और 'चेः किर्वा' ४/१/३६ से दीर्घ 'ची' के स्थान में ह्रस्व 'कि' आदेश होगा । यही ह्रस्व 'कि' का पुनः 'स्वरहनगमोः सनि धुटि' ४/१/१०४ से दीर्घ होगा।
__ संभव हो वहाँ, न्याय की पुनः प्रवृत्ति इस प्रकार होती है । उदा. 'प्रण्यवोचत्' प्रयोग में णत्व करने के लिए 'भूतपूर्वकस्तद्वदुपचार: 'न्याय की दो बार प्रवृत्ति होती है । यहाँ 'ब्रू' धातु का 'अस्तिब्रुवोर्भूवचावशिति' ४/४/१ सूत्र से 'वच्' आदेश होता है और बाद में अद्यतनी में
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