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द्वितीय वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. ११४ )
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यह न्याय और 'यं विधिं प्रत्युपदेशो - ' न्याय परस्पर विरुद्ध प्रतीत होते हैं । तथापि इस न्याय से जहाँ संभव हो वहाँ अवश्य सूत्र या न्याय की पुनः प्रवृत्ति होती है किन्तु यदि उसका कोई फल न हो तो ' यं विधि प्रत्युपदेशः - ' न्याय से उसका बाध हो कर उसी सूत्र या न्याय की पुन: प्रवृत्ति नहीं होगी ।
यह न्याय कातंत्र की दुर्गसिंहकृतपरिभाषावृत्ति, भावमिश्रकृतपरिभाषावृत्ति, कातंत्र परिभाषापाठ कालाप व भोजव्याकरण में भी प्राप्त है। जबकि पाणिनीय परम्परा में यह न्याय नहीं है। ॥ ११४ ॥ संभवे व्यभिचारे च विशेषणमर्थवत
॥
संभव और व्यभिचार होने पर ही विशेषण अर्थवान् बनता है ।
जहाँ विशेष्य में विवक्षित विशेषण का संभव न हो और संभवासंभवस्वरूप व्यभिचार भी न हो वहाँ विशेषण व्यर्थ होने से, उसका प्रयोग न करना चाहिए अर्थात् विशेषण विशेष्य में हो या न भी हो ऐसा जहाँ प्राप्त है, वहाँ ही विशेषण अर्थवान् कहा जाता है । 'यं विधिं प्रत्युपदेशो ऽनर्थकः स विधिर्बाध्यते' न्याय का यह न्याय प्रपंच/ विस्तार है क्योंकि इस न्याय से व्यर्थ विशेषण के उपन्यास / प्रयोग का निषेध किया गया है । उदा. 'तौ मुमो व्यञ्जने स्वौ' १ / ३ / १४ सूत्र में 'पदान्त' विशेषण 'मु' का नहीं बनेगा क्योंकि' पदान्त मु' का कहीं भी संभव नहीं है। अतः पूर्वसूत्र से अनुवृत्त 'पदान्त' विशेषण केवल 'म' का ही बनेगा क्योंकि ' त्वन्तरसि' इत्यादि प्रयोग में पदान्त 'म' का संभव है और रम्यते इत्यादि प्रयोग में असंभव भी है। अतः 'म' के पदान्तव में व्यभिचार है, उसी कारण विशेषण सार्थक है । अत एव वहाँ 'पदान्त' विशेषण प्रयुक्त होगा ।
इस न्याय का ज्ञापक 'तौ मुमो व्यञ्जने स्वौ ' १/३/१४ सूत्रगत 'स्वौ' पद है । वह इस प्रकार : 'स्वौ' में द्विवचन होने से अनुस्वार और अनुनासिक दोनों के साथ, उसका सम्बन्ध होगा किन्तु अनुस्वार, किसी भी व्यञ्जन का 'स्व' नहीं है। अतः 'स्व' अनुस्वार का विशेषण नहीं बनेगा । जबकि 'स्व' अनुनासिक का विशेषण बनेगा क्योंकि अनुनासिक 'स्व' भी है और 'अस्व' भी है इस प्रकार संभव और व्यभिचार दोनों होने से इस न्याय से 'स्व' अनुनासिक का विशेषण बनकर सार्थक होगा। यद्यपि द्विवचन से निर्देश किया गया होने से दोनों के साथ सम्बन्ध स्थापित होने की संभावना होने पर भी इस न्याय से स्वयमेव अनुनासिक का ही विशेषण बनेगा, ऐसा मानकर द्विवचन रखा है । यह न्याय अनित्य होने से 'द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये' इत्यादि प्रयोग में द्विवचन के प्रयोग की अन्यथा अनुपपत्ति होने से और 'ब्रह्म' में द्वित्व का व्यभिचार नहीं होने पर भी 'द्वे' विशेषण रखा है । 'यं विधिं प्रत्युपदेशो - ' न्याय का यह प्रपंच है, ऐसे श्रीहेमहंसगणि के कथन के बारे में चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि इन दोनों न्यायों में केवल व्यर्थत्व की ही समानता है । इसी सादृश्य के कारण इस न्याय को श्रीहेमहंसगणि ने 'यं विधिं प्रत्युपदेशो - ' न्याय का प्रपंच कहा है, ऐसा लगता है । वस्तुतः 'यं विधि- ' न्याय का विषय विधि है जबकि इस न्याय का विषय वाक्यार्थ है अर्थात् दोनों के विषय क्षेत्र भिन्न भिन्न हैं, अतः यह न्याय, उसका प्रपंच नहीं कहा जा सकता हैं । यद्यपि विशेषण की उपन्यास विधि को श्रीलावण्यसूरिजी विधि के रूप में स्वीकार करते है तथापि सिद्धांतानुसार अज्ञात का ज्ञापन करना ही विधि है । उसी दृष्टि से विशेषणत्व की विवक्षा में विधि
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