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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १११)
३०९ 'निन्दहिंसक्लिशखाद'- ५/२/६८ से शीलादि अर्थ में होनेवाले 'णक' प्रत्यय के विषय में सामान्य कर्ता अर्थ में होनेवाला 'तृच्' प्रत्यय ‘णकतृचौ' ५/१/४८ से हुआ है। यहाँ किसी को आशंका हो सकती है कि यह 'तृच' नहीं है किन्तु शीलादि अर्थ में होनेवाला 'तृन्' प्रत्यय है। इसका समाधान देते हुए श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि यहाँ 'तृन्' नहीं है किन्तु 'तृच्' ही है क्योंकि यदि 'तृन्' होता तो 'तृन्नुदन्ताव्ययक्वस्वानातृश्-शतृङिणकच्-खलर्थस्य' २/२/९० से 'तृन्' के कर्म को षष्ठी का निषेध हुआ है अतः 'मनुष्याणां' में षष्ठी का प्रयोग न करना चाहिए, किन्तु यहाँ षष्ठी का प्रयोग है इससे सूचित होता है कि यहाँ तृच्' ही है, 'तृन्' नहीं है और यहाँ ऐसी भी शंका नहीं करनी चाहिए कि यहाँ शीलादि अर्थ ही नहीं है क्योंकि शीलादि अर्थ के अलावा मनुष्य को खाने के स्वभावयुक्त वरु की उपमा समुचित नहीं लगती है।
इस न्याय के इसी दूसरे अर्थ को श्रीलावण्यसूरिजी लक्ष्यानुरोधि मानते हैं । अतः क्वचित् इसी अर्थ का आश्रय नहीं किया जाता है, ऐसा स्वीकार करना चाहिए किन्तु इस न्याय के इस अर्थ की अनित्यता बताने की आवश्यकता नहीं है, ऐसी उनकी मान्यता है।
यद्यपि श्रीहेमहंसगणि ने बताये हुए 'च' ज्ञापक के बारे में विशेष रूप से विचार करने पर लगता है कि शास्त्रकार आचार्यश्री ने उसे ज्ञापक माना है किन्तु वह अन्य वैयाकरण की मान्यतानुसार हो, ऐसा लगता है । ज्ञापक हमेशां व्यर्थ होकर न्याय का ज्ञापन करता है, किन्तु यहाँ 'च' से 'पद्' धातु का अनुकर्षण किया है वह सहेतुक और सार्थक है। उनके अपने मतानुसार 'इङितो व्यञ्जनाद्यन्तात्' ५/२/४४ से अकर्मक धातु से 'अन' प्रत्यय का विधान किया है। जबकि यहाँ 'भूषाक्रोधार्थ'- ५/ २/४२ में 'च' से 'पद्' का अनुकर्षण सकर्मक 'पद्' धातु से 'अन' करने के लिए किया गया है। अत: वह ज्ञापक नहीं बन सकता है। किन्तु अन्य वैयाकरणों की मान्यता का उन्होंने स्वीकार किया है । अतः उनकी मान्यतानुसार 'इङितो व्यञ्जनाद्यन्तात्' ५/२/४४ में सकर्मक धातु है । अतः यहाँ 'च' से 'पद्' के अनुकर्षण की आवश्यकता नहीं है, तथापि अनुकर्षण किया वह व्यर्थ होकर इस न्याय का ज्ञापन करता है और उसी ज्ञापन के साथ ही शास्त्रकार ने स्वयं इस न्याय की अनित्यता और उसके फलस्वरूप 'गन्ता, आगामुकः, भविता, भावुकः' इत्यादि प्रयोग भी बता दिये हैं।
यद्यपि यहाँ इस न्याय का अर्थ इतना ही होता है कि अपवादस्वरूप शीलादि प्रत्यय के विषय में औत्सर्गिक शीलादि प्रत्यय नहीं होते हैं, तथापि 'यदि बाधक प्रमाण न हो तो वही प्रमाण सामान्य को भी सम्मिलित कर लेते हैं।' उसी न्याय से सामान्यतया शीलादि अर्थ में असरूपविधि का निषेध ज्ञापित होता है । ऐसा स्वीकार न करने पर 'अलङ्कारकः' इत्यादि प्रयोग का निषेध करना असंभव हो जाता है।
यह न्याय व्याडि के परिभाषासूचन, परिभाषापाठ, शाकटायन, जैनेन्द्र और सिद्धहेम के पश्चात्कालीन सभी परिभाषासंग्रहों में है ।
॥१११॥ त्यादिष्वन्योऽन्यं नासरूपविधिः ॥५४॥ 'त्यादि' प्रत्यय में परस्पर असरूपविधि नहीं होती है।
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