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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. १०७)
३०३ अतः 'ध्व' स्वयं ही अनर्थक होने से यहाँ 'अर्थवद्ग्रहणे'- न्याय से शंका पैदा नहीं हो सकती है।
संक्षेप में यहाँ 'ध्व' स्वरूप वर्णानुपूर्वीयुक्त वर्णसमूह ही लिया गया है । ऐसा वर्णसमूह 'दद्ध्वः ' दद्ध्वहे' में भी है । अतः वहाँ इस सूत्र की प्रवृत्ति न हो, इसके लिए ही सूत्र में 'प्रत्यये' शब्द रखा है । इस प्रकार वह 'प्रत्यये' शब्द सार्थक है । और केवल 'ध्व' का प्रत्ययत्व अप्रसिद्ध ही है । अतः 'प्रत्यये' शब्द रखने पर भी सूत्र का लक्ष्य सिद्ध नहीं हो सकता है, ऐसा यहाँ कहा जा सकता है, किन्तु 'प्रत्यये' पद का अर्थ लक्षणा से “प्रत्यय सम्बन्धित 'ध्व' शब्द पर में हो तो", ऐसा करने से कोई दोष पैदा नहीं होता है ।।
इस प्रकार प्रत्यये' ग्रहण सार्थक ही है, किन्तु अन्य किसी भी प्रकार से व्यर्थ नहीं बन पाता है । अतः वह इस न्याय का ज्ञापक नहीं बन सकता है, ऐसी अपनी मान्यता है । विद्वज्जन इसका उचित-निर्णय करें, ऐसी विज्ञप्ति ।
इस न्याय की अनित्यता का श्रीलावण्यसूरिजी स्वीकार नहीं करते हैं । वे कहते हैं कि इस न्याय की अप्रवृत्ति लक्ष्यानुसार होती है, अतः जहाँ उसकी आवश्यकता नहीं है, वहाँ उसकी प्रवृत्ति नहीं होगी और वस्तुतः 'नानिष्टार्था शास्त्रप्रवृत्तिः' न्याय से ही यहाँ अन्-लोप' को व्यंजन के आदेश के रूप में मानने के लिए इस न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है। अतः इसके लिए इस न्याय को अनित्य मानना उचित नहीं है।
यह न्याय अन्य किसी परम्परा में नहीं है।
॥१०७॥ अवयवे कृतं लिङ्गं समुदायमपि विशिनष्टि चेत्तं समुदायं सोऽवयवो
न व्यभिचरति ॥५०॥ अवयव में किया हुआ चिह्न समुदाय को भी विशेषित करता है। यदि वह अवयव, उसी समुदाय के साथ व्यभिचरित न हो अर्थात् वह अवयव, उसी समुदाय को छोड़कर अकेला न रहता हो ।
अप्राप्त कार्य की प्राप्ति के लिए यह न्याय है । उदा. 'कुस्मिण कुस्मयने' । यह धातु चुरादि होने से 'चुरादिभ्यो णिच्' ३/४/१७ से 'णिच्' प्रत्यय होगा । अब 'कुस्मिण' पाठ में धातु इदित् है, अतः आत्मनेपद करना है, किन्तु णिजन्त धातु में इदित्त्व नहीं है तथापि उसके अवयव स्वरूप 'कुस्म्' में इदित्त्व है और 'कुस्म्' अवयव णिजन्त धातु को छोड़कर नहीं रहता है, अतः यह इदित्त्व, णिजन्त कुस्म् धातु में है, ऐसा इस न्याय से माना जाता है और णिजन्त कुस्म् धातु से आत्मनेपद होता है । वैसे 'चित्रङ्' शब्द आश्चर्य अर्थ में 'ङित्' है । यह डित्त्व, 'चित्रङ्' में ही है तथापि जब 'नमोऽवरिवश्चित्रङो'- ३/४/३७ से 'क्यन्' प्रत्यय होकर नामधातु बनेगा तब समुदाय स्वरूप 'चित्रीय' से, 'चित्र' के ङित्व के आधार पर आत्मनेपद होगा।
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