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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण ) है । यदि मूल धातु के उ वर्ण का 'व' हो तो स्यादि प्रत्यय अनन्तर नहीं आ सकता है, किन्तु त्यादि ही आता है, किन्तु क्विबन्त धातु होने पर उसमें 'नामत्व' होने से अनन्तर पर में स्यादि प्रत्यय आ है । यदि यह न्याय न होता तो 'धातोरिवर्णोवर्णस्येयुव्' - २/१/५० में 'धातो:' शब्द होने से नाम सम्बन्धित उवर्ण का अव्यवहित स्वरादि स्यादि प्रत्यय पर में होने पर 'उत्' होने की कोई संभावना ही नहीं है, तो उसका बाध करने के लिए 'स्यादौ वः' २/१/५७ सूत्र न करना चाहिए, तथापि किया है, उससे ज्ञापन होता है कि जब धातु से 'क्विप्' प्रत्यय होकर 'नाम' बनेगा तब वह अपने धातुत्व का त्याग नहीं करता है और शब्दत्व को प्राप्त करता है । अतः 'स्वरादि स्यादि' प्रत्यय पर में होने पर ' धातोरिवर्णो' - २/१/५० से 'उव्' आदेश होगा, उसका बाध करने के लिए 'स्यादौ वः' २/ १/५७ सूत्र करना जरूरी है । परिणामत: 'वस्विच्छति इति क्यनि, क्विपि, ' उसके 'क्विप्' का लोप होने पर 'वसू' शब्द होगा । उससे स्वरादि स्यादि 'औ' इत्यादि प्रत्यय पर में होने पर 'स्यादौ वः' २/ १/५७ से 'ऊ' का 'व्' होकर 'वस्वौ, वस्वः' इत्यादि रूप होंगे ।
श्रीमहंसगणि ने इस न्याय की अनित्यता बताते हुए कहा है कि जहाँ धातु से क्विप् कृत्प्रत्यय लगाकर 'नाम' बनाया जाता है वहाँ ही इस न्याय की प्रवृत्ति होती है किन्तु यदि 'नाम' से 'कर्तुः क्विप्'- ३/४/२५ से 'क्विप्' प्रत्यय होकर 'नाम धातु' बना हो वहाँ इस न्याय की प्रवृत्ति नहीं होती है । अतः वहाँ त्यादि प्रत्यय ही होते हैं किन्तु स्यादि प्रत्यय नहीं होते हैं ।
किन्तु यही अनित्यता उचित प्रतीत नहीं होती है क्योंकि इस न्याय का स्वरूप ही ऐसा है कि जब 'नाम' से 'क्विप्' प्रत्यय होकर धातुत्व प्राप्त होता है तब इस न्याय की प्रवृत्ति का कोई अवकाश ही नहीं है । इस न्याय का विषय धातु के नामत्वप्रयोजक 'क्विप्' है किन्तु जो धातुत्वप्रयोजक 'क्विप्' है, वह इस न्याय के क्षेत्र से बाहर है। अतः 'राजानति' इत्यादि प्रयोग में नामत्वनिमित्तक कोई कार्य नहीं होता है और नामनिमित्तक स्यादि प्रत्यय भी नहीं होता है । और 'क्विबन्ता धातुत्वं नोज्झन्ति ' कहा, उससे ज्ञापित होता है कि जहाँ पहले धातुत्व था, किन्तु वर्तमान में क्विप् प्रत्यय आने से नामत्व की प्राप्ति के साथ, उसके धातुत्व के त्याग की संभावना है, उसको यह न्याय दूर करता है । अतः उसी शब्द से त्यादि प्रत्यय को छोड़कर धातुनिमित्तक कार्य और स्यादि प्रत्यय व अन्य सर्व नामनिमित्तक कार्य होते हैं । जबकि 'राजानति' में पहले 'नामत्व' था और 'क्विप्' प्रत्यय होने के बाद धातुत्व आया है । अत: 'राजानति' प्रयोग इस न्याय के क्षेत्र से बाहर है । उसी कारण से ही इस प्रयोग के लिए इस न्याय के अनित्यत्व की कल्पना न करनी चाहिए ।
क्विन्त नाम में धातु का स्वरूप अविकृत रहता है । क्वचित् 'त्' इत्यादि का आगम होता है, किन्तु वे आगम होनेसे 'आगमा यद्गुणीभूता'- न्याय से उसको धातु का अवयव मान लेने पर, उसी क्विबन्त को धातु के रूप में ग्रहण किया जा सकता है और 'सत्त्वप्रधानवाचि' होने से 'नाम' संज्ञा होती है । अत: नामनिमित्तक स्यादि प्रत्यय होता है किन्तु धातुनिमित्तक त्यादि प्रत्यय नहीं होता है । यहाँ किसी को ऐसी शंका हो सकती है कि 'छिद्, भिद्' इत्यादि क्विबन्त को 'अधातुविभक्तिवाक्यमर्थवन्नाम' १/१/२७ से 'नाम' संज्ञा नहीं हो सकेगी क्योंकि उसमें धातु का
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