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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ७५)
२१७ और यदि सिर्फ 'नैयङ्कचर्मणम्' रूप ही इष्ट होता तो व्युत्पत्तिपक्ष का ही आश्रय करना चाहिए। और दोनों रूप इष्ट हों तो, दोनों पक्ष का आश्रय करना चाहिए और इस प्रकार यदि संपूर्ण निर्वाह होता हो तो, यही 'ग्रहणवता नाम्ना न तदादिविधिः' न्याय का आश्रय करना आवश्यक नहीं है। अतः 'न्याङचर्मणम' रूपसिद्धि द्वारा यह न्याय है ऐसा स्वीकार करना प्रामाणिक नहीं लगता है।
इस प्रकार 'नैयङ्कवम्' और 'न्याङ्कवम्', उन दोनों की सिद्धि व्युत्पत्तिपक्ष और अव्युत्पत्तिपक्ष का आश्रय करके हो सकती है। अतः 'न्यकोर्वा' ७/४/८ सूत्र न करना चाहिए ऐसा न कहना क्योंकि 'न्यङ्कोर्वा' ७/४/८ सूत्र से दोनों पक्ष में सिद्ध रूपों को साधुत्व प्राप्त होता है । अत: वही सूत्र सार्थक
कुछेक वैयाकरण, इसी कारण से, इसी प्रकार के सूत्र की रचना नहीं करते हैं।
संक्षेप में श्रीलावण्यसूरिजी की मान्यतानुसार यही 'तदादिविधि' का न्याय सर्वथा निर्मूल है और इस न्याय के अभाव में 'न्यङ्कुचर्मन्' शब्द से होनेवाले 'न्याङ्कचर्मणम्' रूप में न्यकोर्वा ७/४/ ८ से 'ऐ' आगम विकल्प से होगा, ऐसा भी न कहना क्योंकि उसकी प्राप्ति का ही अभाव है और अवयवप्राधान्य की विवक्षा में 'ऐ' आगम होगा ऐसा भी न कहना क्योंकि अवयवप्राधान्य की विवक्षा अनिश्चित/अनियंत्रित है और अवयवप्राधान्य की विवक्षा कहाँ करना ? सूत्र में ? या लक्ष्य में ? यदि सूत्र में अवयवप्राधान्य की विवक्षा करें तो, 'न्यङ्क' शब्द के अवयवस्वरूप जो यकार, उसका प्राधान्य माना जायेगा, किन्तु शब्द का प्राधान्य नहीं माना जायेगा और यकार जैसे 'न्यङ्क' में है वैसा 'न्यङ्कचर्मन्' में भी है । अतः यह तदादिविधि नहीं कही जायेगी और उसी कारण से तदादिविधि का निषेध करनेवाले न्याय से, अवयवप्राधान्य की विवक्षा में प्राप्त होनेवाले कार्य का निषेध नहीं हो सकेगा।
और यदि 'न्यङ्कचर्मन्' प्रयोग में अवयवप्राधान्य की विवक्षा करेंगे तो 'न्यकचर्मन् ' में 'न्यङ्क' की प्रधानता मानी जा सकती और इसके यकार से पूर्व 'ऐ' आगम की प्राप्ति होती, किन्तु सिर्फ इतने से ही 'न्योर्वा' ७/४/८ सूत्र से कार्य नहीं हो सकता है क्योंकि 'न्यकोर्वा' ७/४/८ सूत्र का अर्थ यही कहा है कि जित् णित् तद्वित प्रत्यय से अव्यवहित पूर्व में आये हुए 'न्यङ्क' शब्द के अवयवस्वरूप 'य' से पूर्व 'ऐ' होता है । यहाँ 'न्यकचर्मन्' शब्द में स्थित 'न्यङ्क' शब्द जित् णित् तद्वित प्रत्यय से अव्यवहित पूर्व में नहीं है।
इस प्रकार यहाँ अवयवप्राधान्य की विवक्षा द्वारा 'ऐ' आगम होने की स्वाभाविक प्राप्ति ही नहीं है । अतः उसके लिए कोई विशेष न्याय की कल्पना आवश्यक नहीं है।
और ऊपर बताया उसी तरह श्रीहेमहंसगणि भी कहते हैं कि इसी तदादिविधि का न्याय कहीं भी नहीं बताया गया है । अतः केवल 'ग्रहणवता नाम्ना न तदन्तविधिः' इतना ही न्याय मानना चाहिए।
यह न्याय पाणिनीय परम्परा में 'येन विधिस्तदन्तस्य' सूत्र के महाभाष्य में बताया है, तो अन्य परम्परा में 'येनविधिस्तदन्तस्य' स्वरूप ही यह न्याय है। जैनेन्द्र, शाकटायन इत्यादि में 'प्रातिपदिक
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