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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण)
विधिसूत्र है, अतः यदि यहाँ 'च' न रखा जाय तो ईत्वविधि नित्य हो जाय और 'अ' कार नहीं होगा । अतः 'च' कार से 'अ' भी होता है, इतना कहा जा सकता है; किन्तु जहाँ अदन्तत्वका अभाव है। वहाँ ईत्व की प्रवृत्ति स्वतः होने से, वहाँ 'च' कार से 'अ' होता है, ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि अदन्तत्व के अभाव में दो प्रयोग होने का कोई दृढ़तर प्रमाण नहीं है तथा 'गण' धातु से 'णिच्' के अभाव में अद्यतनी प्रत्यय पर में होने पर ' अजगणत्' रूप की सिद्धि के लिए अकार का विधान चरितार्थ भी नहीं होता है । अतः उससे इस न्यायका ज्ञापन हुआ मान लेने पर भी स्वांश में चारितार्थ्य प्रतीत नहीं होता है । अतः लाघव करने के लिए ही चकार से अत्व का विधान किया गया है, ऐसा समझा जाता है ।
इन सब धातुओं को अकारान्त मानने का कारण केवल णिनिमित्तक कार्य का निवारण ही है । अत: जब 'णि' नहीं होगा तब ये धातु स्वतः अदन्तत्वरहित हो जायेंगे और इस प्रकार प्रत्येक प्रयोग की सिद्धि हो सकेगी ।
यह न्याय अन्य किसी भी परिभाषासंग्रह में प्राप्त नहीं है । ॥१००॥ धातवो ऽनेकार्थाः ॥४३॥
धातु के अनेक अर्थ होते हैं ।
इस न्याय से धातुपाठ में धातु के जो अर्थ बताये हैं उससे भिन्न अर्थ में भी उसी धातु का प्रयोग किया जा सकता है । धातुपाठ में धातु के बताये हुए अर्थ से भिन्न अर्थ में भी उसी धातु के प्रयोग साहित्य में पाये जाते हैं, तो वही प्रयोग उचित है या नहीं ? ऐसे संदेह का निवारण करने के लिए यह न्याय है ।
उदा. 'विधत्' धातु 'विधान करना' अर्थ में है तथापि 'बींधना' अर्थ में भी उसका प्रयोग होता है। जैसे 'शब्दवेधी, वेध: । ' 'एधि' धातु 'वृद्धि' अर्थ में है तथापि 'दीप्ति' अर्थ में प्रयोग किया जाता है, जैसे 'पुरश्च तवैधते ।' 'प्राप्ति' अर्थ में भी प्रयुक्त है, जैसे 'औपवस्त्रफलमेधते ।' 'शुच्' धातु का अर्थ 'शोक' से भिन्न 'पवित्रता' भी होता है । उदा. 'शुचि:' । 'हंग्' धातु हरण करना अर्थ तथापि करण अर्थ में प्रयुक्त होता है । उदा. सिद्धहेमबृहद्वृत्ति में 'क्रियाव्यतिहारेऽगति - ३/३/ २३ सूत्र की वृत्ति में 'क्रियाव्यतिहार' की व्याख्या करते हुए कहा है कि 'इतरचिकीर्षितायां क्रियायामितरेण हरणं करणं' । 'मननं मतम्' 'मत्' धातु मानना अर्थ में है तथापि क्वचित् साम्य अर्थ में भी प्रयुक्त होता है । जैसे 'मतीकृता क्षेत्रभू:' । मतीकृता अर्थात् समीकृता (समतल की हुई जमीन ) ।
इस न्याय का ज्ञापक 'तक्षः स्वार्थे वा' ३/४ /७७ सूत्रगत 'स्वार्थे' शब्द है, अतः अन्य अर्थ में 'तस्' धातु से 'श्नु' प्रत्यय नहीं होता है । उदा. संतक्षति वाग्भिः शिष्यम्' अर्थात् वह वाणी द्वारा शिष्य की भर्त्सना करता है अर्थात् शिष्य को धिक्कारता है । यदि यह न्याय न होता तो 'तक्ष' धातु अन्य किसी भी अर्थ में प्रयुक्त होने की संभावना ही न थी । अतः 'स्वार्थे ' शब्द व्यर्थ हुआ और वह व्यर्थ होकर इस न्याय का ज्ञापन करता है ।
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