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न्यायसंग्रह ( हिन्दी विवरण) जहाँ सूत्र में 'गा-मा-दा' रूप में धातुओं का निर्देश किया हो वहाँ 'गांङ् गतौ, गैं शब्दे, मांक माने, मांङ्क् मानशब्दयोः, मेङ् प्रतिदाने' इत्यादि और 'दा' रूप धातुओं का अविशेष अर्थात् सामान्यतया सब का ग्रहण करना किन्तु किसी एक का ग्रहण नहीं होगा।
___ यह न्याय 'लक्षणप्रतिपदोक्तयो....' 'कृत्रिमाकृत्रिमयोः'...., 'अदाद्यनदाद्योः'..... इत्यादि न्यायों का अपवाद है, ऐसा आगे बताया जायेगा । इसमें सूत्र में 'गा' का ग्रहण किया हो तो, दोनों 'गा' का ग्रहण इस प्रकार होता है - 'गाते' और 'गायति' दोनों प्रकार के 'गा' धातु से 'यङ्' प्रत्यय होकर, उसका लोप होने पर आशी:' का अन्यदर्थे एकवचन का प्रत्यय 'क्यात्' होने से 'जागेयात्' रूप होगा । यही रूप दोनों 'गा' धातु सम्बन्धित होनेसे 'जागेयाद् ग्रामं' या 'जागेयाद् गीतं' दोनों प्रयोग होगें । यहाँ दोनों 'गा' धातु के 'आ' का 'गापास्थासादामाहाकः' ४/३/९६ से 'ए' होता है।
यदि यह न्याय न होता तो 'गायति' का 'गा' स्वरूप लाक्षणिक है क्योंकि 'गै' धातु सन्ध्यक्षरान्त होने से 'आत्सन्ध्यक्षरस्य' ४/२/१ सूत्र से 'ऐ' का 'आ' हुआ है। अतः सन्ध्यक्षरस्वरूप लक्षण से प्राप्त होने से 'लाक्षणिक' है । जब 'गाते' स्वरूपवाला 'गा' धातु आकारान्त होने से वह 'प्रतिपदोक्त' है । अतः 'लक्षणप्रतिपदोक्तयो.....' न्याय से 'गाते' स्वरूपवाले 'गा' धातु के ही 'आ'
का 'ए' होता किन्तु 'गै' धातु के 'आ' का 'ए' न होता अथवा 'कृत्रिमाकृत्रिमयोः...' न्याय से कृत्रिम 'गै' धातु सम्बन्धित 'गा' का ग्रहण हो सकता, किन्तु अकृत्रिम (स्वाभाविक) 'गाङ्' धातु का ग्रहण नहीं हो सकता ।
इस न्याय का ज्ञापन 'गायोऽनुपसर्गाट्टक' ५/१/७४ सूत्र गत 'गायो' शब्द से होता है क्योंकि 'गाते' स्वरूपवाले 'गा' धातु का निषेध करने के लिए 'गायः' शब्द रखा है। यदि 'गः' कहा होता तो दोनों ‘गा' धातु का ग्रहण हो जाता, वह न हो, इसलिए 'गायः' कहा है।
इस अंश में यह न्याय अनित्य है क्यों कि गस्थकः' ५/१/६६ में 'गः' रूप में सामान्यतया निर्देश किया है, तथापि वहाँ 'गांङ् गतौ' धातु को छोड़कर केवल 'मैं शब्दे (गायति)' का ही ग्रहण किया है।
'मा' का ग्रहण इस प्रकार है :- 'मितः, मितवान्' इन दोनों प्रयोगों में 'मा' धातु से 'क्त' और क्तवतु' प्रत्यय हुए हैं और 'मा' धातु के 'आ' का 'दोसोमास्थ इः '४/४/११ से 'इ' हुआ है। यहाँ 'मांक माने, मांङ्क् मानशब्दयोः' 'मेङ् प्रतिदाने' (मयति), तीनों धातुओं के 'आ' का 'इ' होता है । अतः 'मितः, मितवान्' के तीनों धातुओं के अर्थ होते हैं।
इस न्यायांश का ज्ञापन 'ईर्व्यञ्जनेऽयपि' ४/३/९७ सूत्र की वृत्ति के ‘मा इति मामांङ्मेंङाम् ग्रहणम्' शब्दों से होता है।
यदि यह न्यायांश न होता तो 'मा' स्वरूप सामान्य कथन से 'अदाधनदाद्योः' न्याय से अथवा 'कृत्रिमाकृत्रिमयो:'- न्याय से केवल ‘मेंङ्' का ही ग्रहण होता किन्तु 'मां' और 'मांङ्क्' धातु का ग्रहण न होता अथवा 'लक्षणप्रतिपदोक्तयो...' न्याय से केवल 'मां' और 'मांङ्क' का ही
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