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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ७८)
२२९ आदेश नहीं होगा, किन्तु केवल ‘पाद' शब्द का ही 'पद्' आदेश होगा ।
इस न्याय के ज्ञापक के रूप में आगे/पहले 'श्रुतानुमितयोः'- न्याय के ज्ञापक के रूप में जो 'किरो लवने '४/४/६३ सूत्रगत 'किरः' प्रयोग को बताया, वह है, क्योंकि यह न्याय न होता तो 'ऋतां क्ङितीर्' ४/४/११६ से 'कृ' धातु के 'ऋ' का 'इर्' होने के स्थान पर संपूर्ण 'कृ'धातु का ही 'इर्' आदेश हो जाता, तो 'किरः' निर्देश व्यर्थ होता । यही 'किरः' निर्देश व्यर्थ होकर इस न्याय का ज्ञापन करता है।
इस प्रकार श्रीहेमहंसगणि ने बताये हुए 'श्रुतानुमितयोः' न्याय के ज्ञापक को उन्होंने "निर्दिश्यमानस्यैव'- न्याय के फल के रूप में बताया है और 'किरो लवने' ४/४/९३ सूत्रगत 'किरः' निर्देश को ज्ञापक बताया है । तो प्रश्न यही पैदा होता है कि 'श्रुतानुमित-' न्याय का विषय क्या है ? कौन-सा है ? उसका प्रत्युत्तर देते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते है किं 'त्रिचतुरस्तिसृचतसृ स्यादौ' २/१/१ इत्यादि सूत्र 'श्रुतानुमितयोः' न्याय की प्रवृत्ति के स्थल हैं । वह इस प्रकार :- इसी सूत्र में, पूर्व सूत्र से आती हुई 'स्त्रियाम्' पद की अनुवृत्ति का प्रत्यक्ष या श्रौत 'त्रि-चतुर्' शब्द के साथ ही सम्बन्ध होगा किन्तु 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ परिभाषाप्राप्त 'त्रि' या 'चतुर्' अन्तवाले 'प्रियत्रि, प्रियचतुर्' इत्यादि संपूर्ण के स्थान में 'तिसृ, चतसृ' आदेश नहीं होगा।
यहाँ श्रीलावण्यसूरिजी ने तथा श्रीहेमहंसगणि ने (लघुन्यासकार के मतानुसार) शब्द के विषय में 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ परिभाषा की प्रवृत्ति की है, किन्तु पहले/पूर्वे बताया है वैसे 'विशेषणमन्तः' ७/४/११३ की प्रवृत्ति यहाँ न की जाय तो, 'ऋतां क्डिन्तीर्' ४/४/११६ में उसकी प्रवृत्ति करनी चाहिए और वहाँ वह हो सकती है। वैसा करने पर श्रीलावण्यसूरिजी ने बताये हुए उदाहरण और ज्ञापक विपरीत/व्यस्त हो जायेंगे अर्थात् 'ऋतां क्छिन्तीर्' ४/४/११६ और 'किरो लवने' ४/४/९३ में 'किरः' निर्देश 'श्रुतानुमित' - न्याय का उदाहरण और ज्ञापक बनेगा तथा 'श्रुतानुमित-' न्याय का उदाहरण 'त्रिचतुरस्तिसृ- '२/१/१ 'निर्दिश्यमानस्यैवादेशाः स्युः' न्याय का उदाहरण बनेगा।
__दूसरी विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि श्रीलावण्यसूरिजी ने पाणिनीय परंपरानुसार दिये हुए न्याय 'निर्दिश्यमानस्यादेशाः स्युः' में एवकार नहीं है, जबकि श्रीहेमहंसगणि की वृत्ति और न्यास में 'निर्दिश्यमानस्यैवादेशाः स्युः 'न्याय है । यहाँ एवकार स्पष्ट है । यही एवकार न होता तो श्रीलावण्यसूरिजी ने किये हुए खंडन को मान्यता दी जा सकती, किन्तु, यही एवकार ऐसा सूचित करता है कि सूत्र में कहे गये शब्द का ही आदेश होता है, किन्तु इसे छोडकर अन्य किसी भी परिभाषाप्राप्त या न्यायप्राप्त तदन्त का आदेश कदापि नहीं होता है अर्थात् उसी एवकार से, अनुमित स्थानी की दुर्बलता बतायी है । अत एव इसी 'निर्दिश्यमानस्यैवादेशाः स्युः' न्याय का 'श्रुतानुमितयोः श्रौतो विधिबलीयान्' न्याय में समावेश किया है, उसमें कुछ अनुचित नहीं है । और यही एवकार युक्त न्याय में अन्य परम्परा के एवकार रहित न्याय का भी समावेश हो ही जाता है । अतः 'निर्दिश्यमानस्यादेशाः' न्याय को यहाँ पृथक् कहने की आवश्यकता भी नहीं है।
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