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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र.८९)
२५९ शब्द से होता है । यह 'नित्यं' शब्द इस न्याय से प्राप्त विकल्प का निषेध करने के लिए है । अतः 'क्रियाव्यतिहार' हो तो 'व्यवक्रोशनं' अर्थ में स्त्रीलिङ्ग की विवक्षा में 'वि+अव+क्रोश' धातु से 'व्यतिहारेऽनीहादिभ्यो ञः' ५/३/११६ से 'ब' प्रत्यय होने पर स्वार्थ में 'नित्यं अजिनोऽण्' ७/३/ ५८ से 'अण्' प्रत्यय होगा और स्त्रीलिङ्ग में ङी प्रत्यय होकर 'व्यावक्रोशी' शब्द बनेगा।
___ यहाँ केवल 'अ' प्रत्ययान्त 'व्यवक्रोश' शब्द का प्रयोग नहीं होता है, किन्तु 'अण' सहित ही प्रयोग होता है अर्थात् 'प्रज्ञ एव प्राज्ञः' इत्यादि में 'प्रज्ञादिभ्योऽण्' ७/२/१६५ से होनेवाले स्वार्थिक 'अण्' प्रत्ययान्त शब्द की वृत्ति में विकल्प से वाक्य भी होता है किन्तु यहाँ उसी तरह 'व्यवक्रोश' प्रयोग न होने से 'व्यवक्रोशा एव व्यावक्रोशी' स्वरूप विग्रहवाक्य नहीं होता है।
'तद्धितवृत्तिविषये नित्यैवापवादवृत्तिः' रूप द्वितीय अंश में 'वोदश्वितः' ६/२/१४४ सूत्रगत 'वा' शब्द ज्ञापक है और यही 'वा' शब्द औत्सर्गिक 'अण' प्रत्यय करने के लिए है। अतः 'औदश्वित्कम्' में 'इकण्' प्रत्यय होगा और औदश्वितम्' में इस न्याय से निषिद्ध होने पर भी 'वा' ग्रहण के सामर्थ्य से 'संस्कृते भक्ष्ये' ६/२/१४० से औत्सर्गिक 'अण्' प्रत्यय होगा और प्रथम न्यायांश के बल से 'उदश्विति संस्कृतम्' स्वरूप वाक्य भी होगा और तीन रूप होंगे।
यदि यह न्यायांश न होता तो अनुक्रम से उत्सर्ग और अपवाद दोनों की प्रवृत्ति होती, और पक्ष में औत्सर्गिक 'अण्' भी सिद्ध हो ही जाता । उसके लिए 'वा' ग्रहण की कोई आवश्यकता न थी, तथापि 'वा' ग्रहण किया, वह इस न्यायांश का ज्ञापन करता है।
समासवृत्ति और तद्धितवृत्ति की व्यवस्था का केवल अनुवादस्वरूप यह न्याय है। इस न्याय से अन्य कोई नई व्यवस्था नहीं होती है । इस न्याय के साध्य की सिद्धि उसी उसी सूत्र द्वारा ही हो जाती है । उदा. 'नित्यं प्रतिना-' ३/१/३७ सूत्र में 'नित्यं' शब्द रखा है। इससे यह ज्ञात होता है कि ऐसे नित्य समास को छोड़कर अन्य समास में वाक्य भी होता है।
'पारेमध्ये'- ३/१/३० सूत्रगत 'वा' शब्द से ऐसा ज्ञापन होता है कि ऐसे सूत्र को छोड़कर अन्यत्र सर्वत्र अपवाद समास के विषय में उत्सर्ग समास नहीं होता है और ऐसे स्थान पर अपवाद के साथ साथ उत्सर्ग समास भी होता है।
और 'वाऽऽद्यात्' ६/१/११ सूत्र से शुरू से होनेवाला 'वा' का अधिकार, ज्ञापन करता है कि 'तद्धितवृत्ति' में सर्वत्र ही वाक्य भी होता है।
___ 'वोदश्वित:' ६/२/१४४ सूत्रगत 'वा' ग्रहण से, ऐसे प्रयोगों को छोड़कर अपवादतद्धित प्रत्यय के विषय में, औत्सर्गिक तद्धित प्रत्यय नहीं होता है और ऐसे स्थान पर अपवादतद्धित प्रत्यय की तरह उत्सर्गतद्धित प्रत्यय भी होता है, ऐसा ज्ञापन होता है।
इस न्याय की अनित्यता नहीं है क्योंकि व्याकरण के सूत्र से सिद्ध हुए कार्य में अनित्यता का संभव ही नहीं है।
यहाँ वृत्ति के तीन प्रकार बताये हैं किन्तु उसके चार और पाँच प्रकार भी है । चार प्रकार में उपर्युक्त तीन प्रकार के अतिरिक्त 'कृद्वत्ति' भी है और पाँच प्रकार में क्वचित् ‘एकशेषवृत्ति' को बताया जाता है। सिद्धहेमबृहद्वृत्ति में आचार्यश्री ने स्वयं वृत्ति का त्रैविध्य, चातुर्विध्य और पंचविध्य
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