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द्वितीय वक्षस्कार ( न्यायसूत्र क्र. ९५ )
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व्यंजनादि प्रत्ययनिमित्तक कार्य नहीं होता है । अत एव 'ईर्व्यञ्जनेऽयपि ४ / ३ / ९७ सूत्र में साक्षात् व्यंजन का ग्रहण करने के लिए 'व्यञ्जने' शब्द रखा है । वह सूचित करता है क्वचित् लुप्त व्यञ्जनादि प्रत्ययनिमित्तक कार्य भी होता है ।
'क्विप्' प्रत्यय होने पर व्यंजननिमित्तक कार्य की प्राप्ति हो तो ही इस न्याय की आवश्यकता है, अन्यथा यह अनावश्यक है । सामान्यतया सिद्धहेम की परंपरा में अनुबंध इत्यादि के लोप के लिए एक ही 'अप्रयोगीत्' १/१ / ३७ सूत्र है । इसके अनुसार जिसका कहीं भी प्रयोग न हुआ हो, उसे 'इत्' संज्ञा होती है और 'एति अपगच्छति इति इत्' स्वरूप में 'इत्' की व्याख्या करने पर जो 'अप्रयोगि' है, उसका लोप हो जाता है। यहाँ 'क्विप्' प्रत्यय के विषय में संपूर्ण प्रत्यय का ही लोप होता है, तो शायद 'प्रत्ययलोपे प्रत्ययलक्षणं कार्यम्' न्याय से क्विप् निमित्तककार्य की प्राप्ति हो सकती है किन्तु व्यञ्जननिमित्तक कार्य की प्राप्ति कैसे होती है ? इसके लिए 'क्विप्' प्रत्यय के स्वरूप का विचार करना होगा । उसके बारे में शब्दमहार्णवन्यास (बृहन्यास) में कहा है कि क्विप् प्रत्यय में 'क' कार और 'प' कार दो अनुबंध है, 'इ' उच्चारणार्थ है, अतः केवल 'व' कार ही प्रत्यय का अंश है, यदि यह 'व' कार न होता तो 'अप्रयोगि' शब्द का अभिधेय ही नहीं मिलता । अतः प्रत्ययत्व केवल 'व' में ही है और 'व' कार रखने का कारण बताते हुए वे कहते हैं कि महाभाष्य का सिद्धांत है कि 'न हि यण: ( अन्तस्था: ) पदान्ताः सन्ति। ' [ अन्तस्था ( यवरल ) प्रायः कदापि पद के अन्त में नहीं होते हैं ।] अतः प्रत्यय सम्बन्धित कार्य करने के बाद उसकी निवृत्ति हो जायेगी । इस प्रकार क्विप् के 'व' में प्रत्ययत्व और कार्यार्थत्व है । अतः व्यंजननिमित्तक कार्य की प्राप्ति है । उसको इस न्याय से दूर की जाती है ।
इसी प्रकार से 'विच्' के 'व' में भी प्रत्ययत्व और कार्यार्थत्व है । अतः उसका यहाँ संग्रह किया है, किन्तु यहाँ 'विच्' का संग्रह करना उचित नहीं है, ऐसा श्रीलावण्यसूरिजी का मत है । शायद यहाँ उसका संग्रह करने में कोई बाधा नहीं है किन्तु उसका जो फल बताया है, वह उचित नहीं है । श्रीहेमहंसगणि ने 'विच्' का उदाहरण इस प्रकार दिया है । 'मुख्यमाचष्टे इति णिजि' बाद में 'विच्' प्रत्यय होने पर 'मुख्य् '* होगा । और यहाँ इस न्याय के कारण 'य्वोः प्वय्व्यञ्जने लुक्' ४/४/१२१ से 'यू' का लोप नहीं हुआ है, किन्तु वह उचित नहीं है क्योंकि सिद्धहेमबृहन्न्यास में श्रीहेमचन्द्रसूरिजी ने बताये हुए महाभाष्य के सिद्धान्त 'न हि यणः पदान्ताः सन्ति' के खिलाफ यह उदाहरण है । अतः कारान्त प्रयोग अनुचित है और वस्तुतः ऐसे प्रयोग अनभिधान ही होते हैं अर्थात् 'विच्' के ग्रहण का यहाँ कोई फल नहीं है ।
अन्य किसी भी व्याकरण में यह न्याय प्राप्त ही नहीं है, तो 'विच्' के ग्रहण की चर्चा तो होती ही कहाँ ?
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यहाँ 'न्यायसंग्रह' की छपी हुई किताब में 'मुख्य्' के स्थान पर 'मुख्यः' शब्द प्राप्त है किन्तु वह सही नही है। यहाँ श्रीमहंसगणि की क्षति है ऐसा न मानना किन्तु मुद्रणदोष है, ऐसा मानना चाहिए ।
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