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न्यायसंग्रह (हिन्दी विवरण) श्रीहेमहंसगणि ने 'घुष्' धातु के अनुबंध ऋको ज्ञापक माना है, वैसे चुरादि धातु के उसे छोड़कर अन्य अनुबन्ध भी ज्ञापक बन सकते हैं, यदि उसी अनुबंध का फल केवल 'णिच्' के अभाव में ही प्राप्त हो तो। उदा० 'चितुण्' धातु का उकार अनुबन्ध । इसी उकार अनुबंध का फल 'न' का आगम है और वही न का आगम 'चिन्तण' पाठ करने से भी हो सकता है, किन्तु वैसा करने पर 'आशी:' में 'चिन्त्यात्' रूप के स्थान में 'नो व्यञ्जनस्यानुदितः ४/२/४५ से 'न' का लोप होकर 'चित्याद्' जैसा अनिष्ट रूप होता । और उदित् करने से 'उदितः स्वरान्नोऽन्तः' ४/४/९८ से न का आगम होगा और उसका 'नो व्यञ्जनस्या-' ४/२/४५ से लोप नहीं हो सकता है क्योंकि 'चितुण' धातु उदित् है । यदि चुरादि से णिच् नित्य ही होता तो, यह 'उ' अनुबंध व्यर्थ होता, अत: 'उ' कार अनुबंध से भी इस न्याय का ज्ञापन होता है ।
श्रीहेमहंसगणि ने 'णिश्रिद्गुस्नु...' ३/४/५८ से होनेवाले 'ङ' को विशेषविधि मानी है और 'ऋदिच्छ्वि-स्तम्भू'.... ३/४/६५ से होनेवाले 'अङ्' को सामान्यविधि मानी है, ऐसा उनके शब्दों से प्रतीत होता है । इस न्याय के न्यास में श्रीहेमहंसगणि कहते हैं कि यहाँ 'अङ्' सामान्यविधि है क्योंकि वह प्रत्येक ऋदित् धातु के लिए है । जबकि 'ङ' विशेषविधि है क्योंकि धातु ऋदित् होने पर भी वह जब ण्यन्त होगा तब ही उसकी प्रवृत्ति होती है। श्रीलावण्यसूरिजी इस बात का स्वीकार नहीं करते हैं । वे दोनों विधियों को विशेषविधि मानते हैं । अतः कोई किसीका बाध करने में समर्थ नहीं है । वे कहते हैं कि यहाँ ऐसी शंका न करनी चाहिए कि ऋदित् के सामर्थ्य से ही, णिजन्त 'घुष्' धातु को भी 'अङ्' ही होगा और 'ङ' नहीं होगा क्योंकि 'ङ' विशेषविधि है । अतः 'अड़ ''ङ' का बाध करने में समर्थ नहीं है । 'ङ' और 'अङ्' दोनों विशेषविधि हैं क्योंकि ण्यन्त धातु से 'ङ' होता है, और ऋदित् धातु से 'अङ्' होता है । और ण्यन्त धातु से 'अङ्' नहीं होता है क्योंकि एक न्याय ऐसा है कि 'अवयवेऽचरितार्था अनुबन्धाः समुदायस्योपकारका भवन्ति' किन्तु इस न्याय का यहाँ विषय ही नहीं है । अतः यहाँ 'ऋ' अनुबंध अवयव में चरितार्थ होने से, ण्यन्त 'घुष्' धातु के लिए वह उपकारक नहीं बनता है। अतः ण्यन्त 'घुष्' धातु ऋदित् कहा ही नहीं जाता और तो 'अङ्' की किसी भी अवस्था में प्राप्ति ही नहीं है। यह न्याय ऐसा सूचित करता है कि एक के गुणधर्म/धर्म का दूसरे में आरोपण नहीं किया जा सकता है । यहाँ ऋदित्त्व 'घुष्' धातु का धर्म है किन्तु 'घोषयति' (ण्यन्त घुष् धातु) का धर्म नहीं है और ण्यन्त धातु को सब ने धात्वन्तरशब्दान्तर के रूप में मान्यता प्रदान की है और सामान्यविधि तथा विशेषविधि स्वरूप, 'अङ्' और 'ङ' में बाध्यबाधकभाव नहीं है किन्तु इतना ही कहना चाहिए कि ण्यन्त घुष धातु से 'अङ्' की प्राप्ति ही नहीं है।
इस न्याय की अनित्यता का अस्वीकार करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि इस न्याय के कारण 'युजार्दैनवा' ३/४/१८ सूत्रगत 'णिच् ' विकल्प के व्यर्थत्व की शंका न करनी चाहिए क्योंकि इसी सूत्र द्वारा युजादि धातु में प्रत्येक विभक्ति (काल) में 'णिच्' का विकल्प नित्य है, जबकि यह न्याय केवल शिष्ट प्रयोग में प्राप्त ‘णिच्' के अभाव को स्वीकृति देता है । अतः
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