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द्वितीय वक्षस्कार (न्यायसूत्र क्र. ९७)
२७९ दीर्घपाठ किया, उससे दीर्घविधि की अनित्यता का ज्ञापन होता है, वह भी सही नहीं है क्योंकि पाणिनीय तंत्र में 'स्फुर्ज' धातु का इस्वपाठ किया है।
__ और न्याय प्रत्येक व्याकरण के लिए सर्वसामान्य होते हैं, अतः यहाँ उसका आश्रय नहीं करना चाहिए।
किन्तु इसका समाधान यह दिया जा सकता है कि पाणिनीय तंत्र में 'स्फु' धातु को दीर्घविधि की अनित्यता के उदाहरण स्वरूप लें और 'कूर्दन' प्रयोगगत 'कू' धातु को दीर्घत्व की अनित्यता के ज्ञापक के स्वरूप में लें तो कोई दिक्कत नहीं है और इस प्रकार इसी न्यायांश की पाणिनीय परम्परा में भी प्रवृत्ति हुई है, ऐसा माना जा सकता है । तथापि परिभाषेन्दुशेखर इत्यादि में उसका परिभाषा के रूप में निर्देश नहीं किया गया है और वहाँ दीर्घ करने की प्रक्रिया भिन्न होने से इसी न्यायांश का स्वीकार नहीं किया है, ऐसा मानना ज्यादा उचित प्रतीत होता है।
यह न्याय अन्य किसी भी व्याकरण परम्परा में प्राप्त नहीं है।
॥९७॥ अनित्यो णिच्चरादीनाम् ॥४०॥ चुरादि धातु से सामान्यतया सर्वत्र 'णिच्' होता है, तथापि शिष्ट प्रयोगानुसार कहीं कहीं 'णिच्' प्रत्यय नहीं होता है।
उदा. 'चुरण चोरति, चितुण चिन्तति, छदण् छदनः', 'तुलण्' धातु से 'भिदादयः' ५/३/ १०८ से 'अङ्' होने पर तुला इत्यादि रूप होते हैं ।
इस न्याय का ज्ञापक चुरादि गण के 'घुष्' धातु को 'ऋदित्' किया है, वह है । यदि यह न्याय न होता तो 'चुरादिभ्यो णिच्' ३/४/१७ से 'णिच्' नित्य होता और तो अद्यतनी में 'णिश्रिद्गुलुकमः कर्तरि ङः' ३/४/५८ से 'ङ' ही होता, तो 'अजूघुषत्' प्रयोग नित्य होता, तो 'ऋदित्करण' के फलस्वरूप 'ऋदिच्चि-स्तम्भू-मुचु-म्लुचू-ग्रुचू-ग्लुचू-ग्लुञ्चू जो वा' ३/४/६५ से 'अङ्' होने का अवकाश ही नहीं रह पाता । अतः यह ऋदित्करण व्यर्थ होकर इस न्याय का ज्ञापन करता है । अतः इस न्याय से, जब 'घुष्' धातु से अद्यतनी में 'णिच्' नहीं होगा तब वह ऋदित् होने से 'ऋदिच्छिवस्तम्भू-' ३/४/६५ से 'अङ्' होगा और 'अघुषत्' रूप भी होगा।
यह न्याय अनित्य है। अत: 'युजादि' को छोड़कर अन्य धातु में ही, शिष्ट प्रयोगानुसार णिच्' की अनित्यता मानना किन्तु 'युजादि' धातु में 'युजादेर्नवा' ३/४/१८ से 'णिच्' का विकल्प नित्य ही है । तथा इस न्याय से प्रत्येक 'चुरादि' धातु से विकल्प से 'णिच्' नहीं होता है किन्तु कुछेक ही धातु से उसके अनुबन्ध के कारण विकल्प से 'णिच्' होता है । अतः 'युजादि' धातु में नित्य विकल्प करने के लिए 'युजादेर्नवा' ३/४/१८ सूत्र किया है।
इस न्याय के ज्ञापकत्व के बारे में चर्चा करते हुए श्रीलावण्यसूरिजी कहते हैं कि यहाँ
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